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सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

माया

 

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माया

हम समझ चुके हैं कि, ईश्वर आत्मा के माध्यम से अपने अस्तित्व का आनंद लेता है। इसीलिए श्री कृष्ण भगवान ने गीता के अध्याय सं. 4 श्लोक सं. 6 में यह कहा है कि मैं (अजः) अजन्मा अर्थात् मैं जन्म नहीं लेता, फिर कहा है कि (अव्ययात्मा) मेरी आत्मा अमर है। फिर कहा है कि (आत्ममायया) मैं अपनी लीला (माया) से (सम्भवामि) उत्पन्न होता हूँ।

ईश्वर की शक्ति “माया” इस सृष्टि में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मानव शरीर में इसका प्रभाव मन पर होता है, यह मस्तिष्क में भ्रम बनाये रखती है तथा बुद्धि को भटकाती है इसका उद्देश्य जीवों को भ्रमित कर उन्हें जन्म-व्याधि-जरा-मृत्यु के अनवरत चक्र में उलझाए रखना है जिससे जन्म-भोग-मृत्यु की कार्यप्रणाली चलती रहे।

 

माया ही पांच महा-विकारों का मूल है तथा यह जीवों को भ्रमित करके उनकी आत्मा को संसार के चक्र में बांधती है। माया मनुष्य को सांसारिक सुख-दुख का अनुभव कराती है। समय-समय पर हमारी परीक्षा के माध्यम से यह गुप्त संदेश भी देती रहती है कि, वास्तविक सुख शांति की प्राप्ति का मार्ग आत्म-साक्षात्कार द्वारा ईश्वर की प्राप्ति में है। इस तरह, अध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति की शिक्षा देती है।

 

माया के आयाम :

1भ्रम की शक्ति: माया जगत को वास्तविक दिखाती है, जबकि यह अनित्य (अस्थायी) और मिथ्या (झूठ) है। यह जीव को शरीर, मन और भौतिक सुखों में उलझाए रखती है। माया का अर्थ है "जो दिखता है, वह नहीं है और जो है, वह दिखता नहीं है"

2द्वैत का भ्रम: यह द्वैत (अलगाव) का भ्रम पैदा करती है। माया के कारण जीव स्वयं को ईश्वर से अलग समझता है, जबकि वास्तव में आत्मा और परमात्मा एक ही हैं।

3सृष्टि का कारण: माया ईश्वर की वह शक्ति है जिसके द्वारा वह संसार की रचना करता है। माया वश मनुष्य काम, क्रोध, अहंकार, लोभ तथा मोह का अनुभव करता है वह मैं तथा मेरा के मायाजाल में फंस जाता है उसे अधिकता की भावना महत्वपूर्ण लगती है अर्थात अधिक सुन्दर, स्वादिष्ट, धनी, बड़ा इत्यादि तथा वह इनके ही पीछे भागता रह जाता है परन्तु यदि ऐसा न हो तो यह सृष्टि चल ही नहीं सकती, माया ही मनुष्य की सामाजिक, आर्थिक स्थिति और इसके फलस्वरूप होने वाले सुख-दुःख का आधार है।

4गुणों का खेल: माया तीन गुणों (सत्त्व, राजस तथा तमस) से बनी है। यह गुण जीव के मन एवं व्यवहार को प्रभावित करते हैं। भक्ति में भी माया अपना भ्रम बनाये रखती है जिस कारण मनुष्य अपने दुखों से मुक्ति की कामना करने लगता है तथा वह कब सात्विक से राजसिक हो गया उसे पता ही नहीं चलता है।

माया के उदाहरण:

•  माया स्वप्न की तरह है: जैसे स्वप्न में सब कुछ वास्तविक लगता है, मनुष्य अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति प्राप्त कर लेता है परन्तु, जागने पर पता चलता है कि जो पाया वह मिथ्या था, ऐसे ही माया का संसार भी एक भ्रम है।

रस्सी से सांप का भ्रम: अंधेरे में रस्सी को सांप समझ लेना माया का उत्कृष्ट उदाहरण है। सत्य-ज्ञान के प्रकाश से माया का भ्रम दूर हो जाता है।

माया से मुक्ति:

माया के भ्रम को तोड़कर ही मोक्ष प्राप्त होता है। माया से मुक्ति का मार्ग ज्ञान एवं भक्ति है। जब जीव को अपने वास्तविक स्वरूप (आत्मा) व ईश्वर (परमात्मा) का सच्चा ज्ञान होता है, तो माया का भ्रम टूट जाता है। मैंने एक बार एक संत के प्रवचन में सुना था “माया को “नर्तकी” कहा गया है, यह नर्तकी अपने दर्शकों को इतना मोहित कर देती है कि, वे भी इसकी ताल में ताल मिला कर नृत्य करने लगते हैं व कुछ समय के बाद वो नाचते हैं और ये तमाशा देखती है” इसके मोह-पाश से बचने का उपाय इस प्रकार से बताया कि, माया नामक “नर्तकी” की का तोड़ इसके नाम में ही छिपा है, इसे उल्टा करने पर यह “कीर्तन” हो जाता है” यही इससे मुक्ति का उपाय है।  

 

निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि, माया का प्रभाव मन पर होता है तथा यदि मन को ईश्वर में एकाग्र कर दें तो माया का भ्रम नष्ट हो जाएगा तथा “आत्मोधार” हो जाएगा।

 

हरि ॐ शांति, शांति, शांति  


 



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