वैदिक काल गणना
"अपरा विद्या" शब्द का अर्थ सांसारिक ज्ञान या
लौकिक शिक्षा से है। इसमें वे सभी विषय शामिल होते हैं जो भौतिक जगत से जुड़े होते
हैं, जैसे विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल आदि। यह सांसारिक जीवन
को समझने तथा उसमें कुशलता प्राप्त करने
की शिक्षा देती है।
अपरा विद्या के
अनुसार "कल्प" एक समय-चक्र को दर्शाता है, जो हिंदू धर्म एवं दर्शन में ब्रह्मांड के निर्माण, संचालन व विलय की प्रक्रिया को समझने की महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह समय की एक विशाल
इकाई है, जो ब्रह्मांड के चक्रीय स्वरूप
को दर्शाती है। एक कल्प को "ब्रह्मा जी का एक दिन" भी कहा जाता है, जो लगभग 4.32 अरब वर्षों के बराबर होता है। इसके बाद एक
उतनी ही लंबी रात होती है, जिसे "प्रलय"
कहा जाता है। इस प्रकार, ब्रह्मा जी का
एक पूरा दिन-रात का चक्र 8.64 अरब वर्षों का होता है। कल्प तथा प्रलय का चक्र ब्रह्मांड
के काल की अनंत प्रक्रिया को दर्शाता है।
कल्प की विस्तृत व्याख्या:
कल्प के प्रकार:
सृष्टि कल्प: यह ब्रह्मांड
के निर्माण का समय होता है।
स्थिति कल्प: यह ब्रह्मांड
के संचालन तथा स्थिरता का समय होता है।
संहार कल्प: यह ब्रह्मांड
के विलय तथा प्रलय का समय होता है।
प्रलय कल्प: यह ब्रह्मांड
के पूर्ण विलय तथा शून्यता का समय होता है।
कल्प का महत्व: कल्प की अवधारणा
ब्रह्मांड के चक्रीय स्वरूप को दर्शाती है, जो निरंतर निर्माण, संचालन तथा विलय
की प्रक्रिया से गुजरता है। यह हिंदू दर्शन में समय की अनंतता तथा ब्रह्मांड की असीमता
को समझने का एक माध्यम है।
कल्प एवं मन्वंतर:
एक कल्प में
14 मन्वंतर होते हैं, जिनमें से प्रत्येक
मन्वंतर 71 महायुगों का होता है। प्रत्येक मन्वंतर के बाद एक संधि काल होता है, जो एक महायुग के बराबर होता है। एक कल्प में
1,000 महायुग होते हैं। प्रत्येक महायुग में चार युग होते हैं: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा
कलियुग।
प्रत्येक
मन्वंतर एक विशेष मनु के शासनकाल को दर्शाता है, जो मानव जाति के पूर्वज तथा शासक माने जाते हैं। प्रत्येक मन्वंतर के दौरान एक
नई मानव सभ्यता का उदय होता है। यहाँ 14 मन्वंतर तथा उनसे संबंधित मनुओं के नाम दिए गए हैं:
मन्वंतर व उनके
मनु:
- स्वायंभुव
मन्वंतर: यह पहला
मन्वंतर है। इसके मनु,
स्वायंभुव थे जिन्हें आदि मनु
माना जाता है, वे
ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। इनकी पत्नी शतरूपा थीं।
- स्वारोचिष
मन्वंतर: मनु:
स्वारोचिष मनु, इस मन्वंतर में देवताओं तथा ऋषियों की एक नई पीढ़ी का
उदय हुआ।
- उत्तम
मन्वंतर: मनु:
उत्तम मनु, इस
मन्वंतर में धर्म तथा न्याय की प्रधानता थी।
- तामस
मन्वंतर मनु:
तामस मनु, इस
मन्वंतर का नाम उनके ही नाम पर रखा गया है।
- रैवत
मन्वंतर: मनु:
रैवत मनु, इस
मन्वंतर में भगवान विष्णु के अवतार वामन की कथा प्रसिद्ध है।
- चाक्षुष
मन्वंतर: मनु:
चाक्षुष मनु, इस
मन्वंतर में भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था।
- वैवस्वत
मन्वंतर (वर्तमान मन्वंतर): यह वर्तमान मन्वंतर है, जिसमें हम रह रहे हैं। वैवस्वत मनु को मनुस्मृति
का रचयिता माना जाता है। इन्हें "श्रद्धादेव" भी कहा जाता है।
- सावर्णि
मन्वंतर: मनु:
सावर्णि मनु, यह
भविष्य का पहला मन्वंतर होगा।
- दक्ष
सावर्णि मन्वंतर: मनु: दक्ष सावर्णि मनु, इस मन्वंतर में एक नई सृष्टि का उदय होगा।
- ब्रह्म
सावर्णि मन्वंतर: मनु: ब्रह्म सावर्णि मनु, इस मन्वंतर में ब्रह्मा जी के गुणों वाली सृष्टि
होगी।
- धर्म
सावर्णि मन्वंतर: मनु: धर्म सावर्णि मनु, इस मन्वंतर में धर्म की प्रधानता होगी।
- रुद्र
सावर्णि मन्वंतर: मनु: रुद्र सावर्णि मनु,
इस मन्वंतर में भगवान शिव के
गुणों वाली सृष्टि होगी।
- देव
सावर्णि मन्वंतर: मनु: देव सावर्णि मनु,
इस मन्वंतर में देवताओं की
प्रधानता होगी।
- इंद्र
सावर्णि मन्वंतर: मनु: इंद्र सावर्णि मनु,
यह अंतिम मन्वंतर होगा,
जिसमें इंद्र के गुणों वाली
सृष्टि होगी।
मन्वंतर की
अवधि:
- प्रत्येक
मन्वंतर की अवधि लगभग 30.67 करोड़ वर्ष होती है।
- प्रत्येक
मन्वंतर के बाद एक संधि
काल होता
है, जो
लगभग 1.58 करोड़ वर्ष का होता है।
- इस प्रकार,
14 मन्वंतर एवं उनके संधि काल
मिलाकर एक कल्प (ब्रह्मा जी का एक दिन) पूरा होता है।
वर्तमान
मन्वंतर:
वर्तमान में
हम वैवस्वत मन्वंतर में रह रहे हैं, जो सातवां मन्वंतर है। इस मन्वंतर में 27 महायुग बीत चुके हैं, तथा अभी 28वें महायुग का कलियुग चल रहा है।
महायुग
महायुग एक
समय की इकाई है, जो चार युगों (सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग तथा कलियुग) से मिलकर बनता है। एक मन्वंतर में 71 महायुग होते हैं। 71 महायुगों के नाम विशेष रूप
से हिंदू धर्म के ग्रंथों में उल्लेखित नहीं हैं उन्हें उनके क्रम तथा संख्या से
जाना जाता है। प्रत्येक महायुग की अवधि 43,20,000 वर्ष होती है। प्रत्येक मन्वंतर के अंत में एक संधि काल होता है, जो एक महायुग
के बराबर (43,20,000 वर्ष) होता है। इस प्रकार, एक मन्वंतर की कुल अवधि = 71 महायुग + 1 संधि काल = 72 महायुग (लगभग 30.67 करोड़
वर्ष)।
महायुग की
संरचना:
- सतयुग
(कृतयुग): 17,28,000 वर्ष
- त्रेतायुग:
12,96,000 वर्ष
- द्वापरयुग:
8,64,000 वर्ष
- कलियुग:
4,32,000 वर्ष
इन चार युगों
का योग एक महायुग बनाता है, जो 43,20,000 वर्ष का होता है। प्रत्येक महायुग की संरचना तथा मूल घटनाएँ समान होती
हैं, केवल उनमें धर्म की अवस्था
(सतयुग में सबसे अधिक तथा कलियुग में सबसे कम) बदलती है।
वर्तमान
महायुग:
- हम वर्तमान
में 28वें महायुग के कलियुग में रह रहे हैं।
- कलियुग का
आरंभ 3102 ईसा
पूर्व में हुआ था, तथा
यह 4,32,000 वर्षों
तक चलेगा।
सतयुग को कृतयुग भी कहा जाता है, सनातन के अनुसार
चार युगों में से पहला एवं सर्वश्रेष्ठ युग है। यह धर्म, सत्य,
न्याय तथा आध्यात्मिकता का युग माना जाता है। सतयुग की व्याख्या
निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
सतयुग की मुख्य विशेषताएँ:
- अवधि:
- सतयुग की अवधि 17,28,000 वर्ष होती
है।
- यह चार युगों में सबसे लंबा युग है।
- धर्म की स्थिति:
- सतयुग में धर्म अपने पूर्ण
रूप में होता है। इसे "धर्म का स्तंभ" माना जाता है, जो पूरी तरह से स्थिर तथा अडिग होता है।
- इस युग में अधर्म, झूठ तथा पाप का
कोई स्थान नहीं होता।
- मानव जीवन:
- मनुष्यों की आयु बहुत लंबी होती है, जो लाखों वर्षों तक हो सकती है।
- लोगों में आध्यात्मिकता, ज्ञान तथा सद्गुणों की प्रधानता होती है।
- मनुष्यों को किसी प्रकार के शारीरिक
या मानसिक कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता।
- सामाजिक व्यवस्था:
- समाज में पूर्ण सद्भाव तथा शांति होती
है।
- कोई सामाजिक असमानता या भेदभाव नहीं
होता।
- लोग स्वाभाविक रूप से धर्म का पालन
करते हैं तथा सत्य के मार्ग पर चलते हैं।
- प्रकृति की स्थिति:
- प्रकृति पूरी तरह से संतुलित तथा उदार
होती है।
- मौसम सुहावना होता है, तथा भूमि स्वतः ही फसलों से भरपूर होती है।
- लोगों को किसी प्रकार की कठिनाई या
संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ता।
- आध्यात्मिकता:
- इस युग में लोगों का मुख्य लक्ष्य
मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त करना होता है।
- योग, ध्यान
तथा तपस्या का बहुत महत्व होता है।
- लोगों में भगवान के प्रति अटूट
श्रद्धा तथा भक्ति होती है।
- अवतार तथा देवताओं की भूमिका:
- सतयुग में भगवान विष्णु के अवतार मत्स्य, कूर्म, वराह तथा नृसिंह प्रकट हुए थे।
- देवताओं तथा मनुष्यों के बीच सीधा संवाद होता था।
सतयुग का महत्व:
- सतयुग को "स्वर्ण युग" कहा
जाता है, क्योंकि यह पूर्णता, शुद्धता तथा आदर्शवादी युग है।
- यह युग मनुष्यों के लिए आध्यात्मिक
उन्नति तथा आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम समय माना गया है।
सतयुग तथा अन्य युगों का तुलनात्मक विवरण:
विशेषता |
सतयुग (कृतयुग) |
त्रेतायुग |
द्वापरयुग |
कलियुग |
अवधि |
17,28,000 वर्ष |
12,96,000 वर्ष |
8,64,000 वर्ष |
4,32,000 वर्ष |
धर्म की स्थिति |
पूर्ण (100%) |
75% |
50% |
25% |
मुख्य गुण |
सत्य, ज्ञान |
यज्ञ, तपस्या |
भक्ति, कर्म |
अज्ञान, पाप |
सतयुग की व्याख्या हमें यह समझाती है
कि मानव जीवन का उद्देश्य धर्म, सत्य तथा आध्यात्मिकता के मार्ग
पर चलना है। यह युग हमें एक आदर्श समाज तथा जीवनशैली की प्रेरणा देता है।
त्रेतायुग
त्रेतायुग हिंदू धर्म के अनुसार चार
युगों में से दूसरा युग है, जो सतयुग
के बाद आता है। यह युग धर्म, न्याय तथा आध्यात्मिकता के विषय
में सतयुग से थोड़ा कम होता है, लेकिन फिर भी यह एक श्रेष्ठ
युग माना जाता है। त्रेतायुग की व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा
सकती है:
त्रेतायुग की मुख्य विशेषताएँ:
- अवधि:
- त्रेतायुग की अवधि 12,96,000 वर्ष होती
है।
- यह सतयुग से छोटा, लेकिन द्वापरयुग तथा कलियुग से लंबा होता है।
- धर्म की स्थिति:
- त्रेतायुग में धर्म अपने पूर्ण
रूप का 75% होता है।
- इस युग में अधर्म तथा पाप का आरम्भ
होता है, लेकिन यह अल्प मात्रा में होता है।
- धर्म के तीन चौथाई भाग का पालन किया
जाता है।
- मानव जीवन:
- मनुष्यों की आयु सतयुग की तुलना में
कम होती है, परन्तु फिर भी यह बहुत लंबी होती है
(लाखों वर्ष नहीं, लेकिन हजारों वर्ष तक)।
- लोगों में आध्यात्मिकता तथा सद्गुणों
की प्रधानता होती है, लेकिन सतयुग की तुलना में थोड़ी कम
होती है।
- मनुष्यों को कुछ शारीरिक तथा मानसिक
कष्टों का सामना करना पड़ता है।
- सामाजिक व्यवस्था:
- समाज में सद्भाव तथा शांति होती है, लेकिन सतयुग की तुलना में थोड़ी कम होती है।
- सामाजिक असमानता तथा भेदभाव की शुरुआत
होती है, लेकिन यह बहुत कम मात्रा में होता
है।
- लोग धर्म का पालन करते हैं, लेकिन उनमें स्वार्थ तथा अहंकार की भावना भी उत्पन्न
होने लगती है।
- प्रकृति की स्थिति:
- प्रकृति सतयुग की तुलना में थोड़ी कम
उदार होती है।
- मौसम अच्छा होता है, लेकिन कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ भी होती हैं।
- भूमि अभी भी उपजाऊ होती है, लेकिन सतयुग की तुलना में कम होती है।
- आध्यात्मिकता:
- इस युग में लोगों का मुख्य लक्ष्य
धर्म, यज्ञ तथा तपस्या के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति
प्राप्त करना होता है।
- योग तथा ध्यान का अभ्यास किया जाता है, लेकिन सतयुग की तुलना में थोड़ा कम होता है।
- लोगों में भगवान के प्रति श्रद्धा तथा
भक्ति होती है।
- अवतार तथा देवताओं की भूमिका:
- त्रेतायुग में भगवान विष्णु के अवतार वामन, परशुराम तथा राम प्रकट हुए थे।
- भगवान राम का जन्म तथा उनकी लीला इस
युग की सबसे प्रमुख घटना है।
- देवताओं तथा मनुष्यों के बीच संवाद
होता है, लेकिन सतयुग की तुलना में कम होता
है।
त्रेतायुग का महत्व:
- त्रेतायुग को "रजस युग"
भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें कर्म तथा यज्ञ का बहुत
महत्व होता है।
- यह युग हमें धर्म,
न्याय तथा आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा
देता है।
- त्रेतायुग की अवधारणा हिंदू धर्म में
समय के चक्रीय स्वरूप तथा मानव जीवन
के उद्देश्य को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन है। त्रेतायुग की व्याख्या हमें
यह समझाती है कि मानव जीवन का उद्देश्य धर्म, यज्ञ
तथा तपस्या के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना है। यह युग हमें एक
संतुलित तथा धार्मिक जीवनशैली की प्रेरणा देता है।
द्वापरयुग
द्वापरयुग हिंदू धर्म के अनुसार चार युगों में से तीसरा युग है, जो त्रेतायुग के बाद तथा कलियुग से पहले आता है। यह युग धर्म तथा अधर्म
के बीच संघर्ष का युग माना जाता है। द्वापरयुग की व्याख्या निम्नलिखित बिंदुओं के
माध्यम से की जा सकती है:
द्वापरयुग की मुख्य विशेषताएँ:
- अवधि:
- द्वापरयुग की अवधि 8,64,000 वर्ष होती
है।
- यह त्रेतायुग से छोटा, लेकिन कलियुग से लंबा होता है।
- धर्म की स्थिति:
- द्वापरयुग में धर्म अपने पूर्ण
रूप का 50% होता है।
- इस युग में धर्म तथा अधर्म के बीच
संतुलन होता है।
- अधर्म तथा पाप की मात्रा बढ़ने लगती
है, लेकिन धर्म अभी भी प्रबल होता है।
- मानव जीवन:
- मनुष्यों की आयु त्रेतायुग की तुलना
में कम होती है, परन्तु,फिर भी
यह लंबी होती है (हजारों वर्ष नहीं, लेकिन सैकड़ों
वर्ष तक)।
- लोगों में आध्यात्मिकता तथा सद्गुणों की प्रधानता होती है, लेकिन त्रेतायुग की तुलना में थोड़ी कम होती है।
- मनुष्यों को शारीरिक तथा मानसिक
कष्टों का सामना करना पड़ता है।
- सामाजिक व्यवस्था:
- समाज में सद्भाव तथा शांति होती है, लेकिन त्रेतायुग की तुलना में थोड़ी कम होती है।
- सामाजिक असमानता तथा भेदभाव बढ़ने
लगते हैं।
- लोग धर्म का पालन करते हैं, लेकिन उनमें स्वार्थ तथा अहंकार की भावना भी बढ़ने लगती
है।
- प्रकृति की स्थिति:
- प्रकृति त्रेतायुग की तुलना में थोड़ी
कम उदार होती है।
- मौसम अच्छा होता है, लेकिन प्राकृतिक आपदाएँ भी होती हैं।
- भूमि अभी भी उपजाऊ होती है, लेकिन त्रेतायुग की तुलना में कम होती है।
- आध्यात्मिकता:
- इस युग में लोगों का मुख्य लक्ष्य
भक्ति तथा कर्म के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करना होता है।
- योग तथा ध्यान का अभ्यास किया जाता है, लेकिन त्रेतायुग की तुलना में थोड़ा कम होता है।
- लोगों में भगवान के प्रति श्रद्धा तथा
भक्ति होती है।
- अवतार तथा देवताओं की
भूमिका:
- द्वापरयुग में भगवान विष्णु के अवतार कृष्ण तथा बलराम प्रकट हुए थे।
- भगवान कृष्ण का जन्म तथा उनकी लीला इस
युग की सबसे प्रमुख घटना है।
- महाभारत का युद्ध भी इसी युग में हुआ
था, जो धर्म तथा अधर्म के बीच संघर्ष का
प्रतीक है।
- देवताओं तथा मनुष्यों के बीच संवाद
होता है, लेकिन त्रेतायुग की तुलना में कम होता
है।
द्वापरयुग का महत्व:
- द्वापरयुग को "कर्म युग" भी
कहा जाता है, क्योंकि इसमें कर्म तथा भक्ति का बहुत
महत्व होता है।
- यह युग हमें धर्म तथा अधर्म के पारस्परिक
संघर्ष के विषय में सिखाता है तथा धर्म की रक्षा हेतु संघर्ष करने की प्रेरणा
देता है।
- द्वापरयुग की अवधारणा हिंदू धर्म में
समय के चक्रीय स्वरूप तथा मानव जीवन के उद्देश्य को समझने का एक महत्वपूर्ण
साधन है। द्वापरयुग की व्याख्या हमें यह समझाती है कि मानव जीवन का उद्देश्य
धर्म, भक्ति तथा कर्म के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति
प्राप्त करना है। यह युग हमें धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष करने तथा अधर्म के
विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देता है।
कलियुग
कलियुग सनातन के अनुसार चार युगों में
से अंतिम व निम्नतम युग है। यह युग अधर्म, अज्ञान तथा पाप का युग माना जाता है। कलियुग की व्याख्या
निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से की जा सकती है:
कलियुग की मुख्य विशेषताएँ:
1. अवधि:
o
कलियुग की अवधि 4,32,000 वर्ष होती है।
o
यह चार युगों में सबसे छोटा युग है।
2. धर्म की स्थिति:
o
कलियुग में धर्म अपने पूर्ण रूप का
केवल 25% होता है।
o
इस युग में अधर्म तथा पाप की प्रधानता होती है।
o
धर्म केवल एक चौथाई भाग तक सीमित रह जाता है।
3. मानव जीवन:
o
मनुष्यों की आयु बहुत कम होती है, जो अधिकतम 100-120 वर्ष तक होती है।
o
लोगों में आध्यात्मिकता तथा सद्गुणों की कमी होती है।
o
मनुष्यों को शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ता है।
4. सामाजिक व्यवस्था:
- समाज में अशांति, असमानता तथा भेदभाव की प्रधानता होती है।
- लोगों में स्वार्थ, अहंकार तथा हिंसा की भावना बढ़ जाती है।
- धर्म तथा न्याय का पालन करने वाले लोग
कम होते हैं।
- प्रकृति की स्थिति:
- प्रकृति असंतुलित तथा कठोर हो जाती
है।
- मौसम में अनियमितता तथा प्राकृतिक
आपदाएँ बढ़ जाती हैं।
- भूमि की उपजाऊ शक्ति कम हो जाती है।
- आध्यात्मिकता:
- इस युग में लोगों का मुख्य लक्ष्य
भौतिक सुख तथा सुविधाएँ प्राप्त करना होता है।
- योग तथा ध्यान का अभ्यास बहुत कम होता
है।
- लोगों में भगवान के प्रति श्रद्धा तथा
भक्ति की कमी होती है।
- दुराचार तथा स्त्रियों के सम्मान में
कमी दृष्टिगोचर होने लगती है।
- नैतिकता नष्ट हो जाती है, केवल भौतिक साधनों प्राप्ति को उद्देश्य माना जाता है
तथा पापाचार का बोलबाला होता है।
- अवतार तथा देवताओं की
भूमिका:
- कलियुग में भगवान विष्णु का अवतार कल्कि प्रकट
होगा।
- कल्कि अवतार का उद्देश्य अधर्म का नाश
करना तथा धर्म की पुनः स्थापना करना होगा।
- देवताओं तथा मनुष्यों के बीच संवाद लगभग
समाप्त हो जाता है।
कलियुग का महत्व:
- कलियुग को "तमस युग"
भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें अज्ञान तथा अंधकार की प्रधानता होती है।
- यह युग हमें धर्म,
सत्य तथा न्याय के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
- कलियुग की अवधारणा हिंदू धर्म में समय
के चक्रीय स्वरूप तथा मानव जीवन के उद्देश्य को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन
है। कलियुग की व्याख्या हमें यह समझाती है कि मानव जीवन का उद्देश्य धर्म,
सत्य तथा न्याय के
मार्ग पर चलना है, भले ही परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन
क्यों न हों। यह युग हमें अधर्म के खिलाफ खड़े होने तथा धर्म की रक्षा करने
की प्रेरणा देता है।
इस प्रकार हमने वैदिक काल की गणना में प्रयोग होने वाली उन इकाइयों के सम्बन्ध
में जाना जो मनुष्य के जीवनकाल से अत्यधिक विशाल हैं इसके साथ ही, हम यह जानते हैं
कि, पृथ्वी एक वर्ष में सूर्य की परिक्रमा करती हैं अतः ब्रह्मांड के अनुसार इसे
एक सौर वर्ष कहा जाता है। सनातन धर्म में
समय की इकाइयों का वर्णन बहुत विस्तार से किया गया है। यहाँ एक सौर वर्ष से घटते
क्रम में समय की मुख्य इकाइयाँ निम्नलिखित हैं:
समय की वैदिक इकाइयाँ (बढ़ते क्रम
में):
- विपल: विपल समय की सूक्षतम इकाई है। इसका उपयोग उन घटनाओं को मापने के लिए किया
जाता है जो बहुत ही तेजी से घटित होती हैं, जैसे
कि परमाणु तथा उप परमाणु कणों की गतिविधियाँ। विपल को संप्रेषणीयता समय इकाई
मानते हुए इसे सेकंड के हिस्से में मापा जाता है। 1 विपल
= 0.000000000000001 सेकंड। इसका
प्रयोग सामान्यतः नहीं किया जाता।
- परमाणु: यह वैदिक समय मापन में प्रयुक्त सूक्ष्म इकाई है। 1 परमाणु = लगभग 26.67 माइक्रोसेकंड।
- त्रुटि: 1 त्रुटि = 2 परमाणु =
लगभग 53.33 माइक्रोसेकंड।
- वेध: 1 वेध = 3 त्रुटि = लगभग
160 माइक्रोसेकंड।
- लव: 1 लव = 3 वेध = लगभग 480
माइक्रोसेकंड।
- निमेष: 1 निमेष = 3 लव = लगभग 1.44
सेकंड। यह एक पलक झपकने का समय माना जाता है।
- क्षण: 1 क्षण = 3 निमेष = लगभग
4.32 सेकंड।
- काष्ठा: 1 काष्ठा = 5 क्षण =
लगभग 21.6 सेकंड।
- पल : 1 पल = 1 मिनट 24
सेकंड (पल में 84 सेकंड होते हैं।
- लघु: 1 लघु = 15 काष्ठा =
लगभग 5.4 मिनट।
- नाड़ी (दंड): 1 नाड़ी = 15 लघु = लगभग
24 मिनट। इसे "घटी" भी कहा जाता है।
- मुहूर्त: 1 मुहूर्त = 2 नाड़ी =
लगभग 48 मिनट।
- प्रहर (याम): 1 प्रहर = 3.75 मुहूर्त
= लगभग 3 घंटे। एक दिवस में 8 प्रहर
होते हैं।
- दिवस (दिन): 1 दिवस = 8 प्रहर = 24
घंटे।
- अहोरात्र (दिन-रात): 1 अहोरात्र = 1 दिन + 1
रात = 24 घंटे।
- पक्ष: 1 पक्ष = 15 दिन। शुक्ल
पक्ष (चंद्र मास का पहला भाग) तथा कृष्ण पक्ष (चंद्र मास का दूसरा भाग)।
- मास (महीना): 1 मास = 2 पक्ष = लगभग 30
दिन। चंद्र मास (28 दिवस) सौर मास (30 दिवस) दो प्रकार से इसकी
गणना की जाती है।
- ऋतु: 1 ऋतु = 2 मास = लगभग 60
दिन। सनातन के अनुसार वर्ष में 6 ऋतुएँ
होती हैं।
- अयन: 1 अयन = 3 ऋतु = लगभग 6
मास। उत्तरायण (सूर्य का उत्तर की ओर गमन) तथा दक्षिणायन (सूर्य का दक्षिण की ओर गमन)।
- सौर वर्ष: 1 वर्ष = 2 अयन = 12
मास = 365 दिन।
- युग: 1 युग = 4 युगों (सतयुग,
त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग) का चक्र।
- महायुग: 1
महायुग = 43,20,000 सौर वर्ष।
- मन्वंतर: 1 मन्वंतर = 71 महायुग =
लगभग 30.67 करोड़ वर्ष।
- कल्प: 1 कल्प = 14 मन्वंतर =
लगभग 4.32 अरब वर्ष। यह ब्रह्मा जी का एक दिन होता है।
- महाकल्प: 1 महाकल्प = ब्रह्मा
जी के 100 वर्ष (जीवनकाल) । यह ब्रह्मांड का पूर्ण जीवनचक्र है।
समय की इकाइयों का महत्व:
सनातन धर्म में समय की इन इकाइयों का
उपयोग धर्मग्रन्थों में, ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों की गति व् ग्रहण इत्यादि की
गणना, खगोलीय पिंडों के
मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों, जीवन में घटने वाली घटनाओं के निर्णय, भविष्य कथन, धार्मिक अनुष्ठान, व्रत एवं त्योहारों की तिथियों इत्यादि के निर्धारण हेतु प्रयोग होता है। केवल
सनातन धर्म ही परमाणुओं के अवयवों की गति से लेकर खरबों सौर वर्षों को मापने की
क्षमता रखता है जिन्हें वर्तमान आधुनिक विज्ञान अब समझ रहा है। यह समय की गणना
ब्रह्मांड के स्वरूप तथा मानव जीवन के उद्देश्य को समझने का एक महत्वपूर्ण साधन
है।
ॐ शांति शांति शांति
Wow, great.
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