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आध्यात्मिक ज्ञान परंपरा
परा तथा अपरा विद्या हिंदू दर्शन तथा आध्यात्मिक ज्ञान परंपरा के दो प्रमुख
प्रकार हैं। यह दोनों विद्याएं मनुष्य के आध्यात्मिक तथा भौतिक विकास से संबंधित
हैं।
1. परा विद्या (परम ज्ञान)
परा विद्या को "परम ज्ञान" अथवा "उच्चतम ज्ञान"
कहा जाता है। यह वह आध्यात्मिक ज्ञान है जो मोक्ष (मुक्ति) की प्राप्ति के लिए
आवश्यक है। यह ज्ञान अदृश्य, अनंत तथा शाश्वत सत्य को समझने से संबंधित है। परा
विद्या का संबंध आत्मा, परमात्मा तथा ब्रह्मांड के गूढ़ व गुप्त रहस्यों से
है।
- परा
विद्या के मुख्य तत्व:
- आत्मज्ञान
(स्वयं का ज्ञान)
- ब्रह्मज्ञान
(परमात्मा का ज्ञान)
- वेदांत तथा उपनिषदों
का अध्ययन
- ध्यान, योग तथा आध्यात्मिक साधना
- मोक्ष की
प्राप्ति हेतु मार्गदर्शन
परा विद्या का उद्देश्य व्यक्ति को भौतिक संसार के बंधनों से मुक्त करना तथा उसे
आत्मिक शांति एवं मुक्ति की ओर ले जाना है। यह ज्ञान वेद, उपनिषद, गीता व अन्य आध्यात्मिक
ग्रंथों में निहित है।
1. आत्मज्ञान: सनातन के अनुसार, यह एक आध्यात्मिक तथा दार्शनिक अवधारणा है, जिसका अर्थ है स्वयं के सच्चे स्वरूप को जानना तथा समझना। यह मनुष्य के अस्तित्व, उसके उद्देश्य तथा उसके परम सत्य की खोज से जुड़ा हुआ है। आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्ग व्यक्ति को आंतरिक शांति, स्वतंत्रता तथा परम आनंद की ओर ले जाता है। यह विभिन्न धर्मों तथा दर्शनों में अलग-अलग रूपों में वर्णित है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य एक ही है – स्वयं का ज्ञान। आत्मज्ञान का शाब्दिक अर्थ है "आत्मा का ज्ञान"। यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है, जो कि शरीर, मन तथा बुद्धि से परे है। आत्मज्ञान के माध्यम से व्यक्ति यह समझता है कि वह शरीर नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना है। यह ज्ञान उसे माया (भ्रम) तथा अज्ञान से मुक्त करता है।
आत्मज्ञान के स्तर
शारीरिक स्तर: इस स्तर पर
व्यक्ति अपने शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानता है।
मानसिक स्तर: यहाँ
व्यक्ति अपने मन तथा भावनाओं को अपनी
पहचान मानता है।
बौद्धिक स्तर: इस स्तर पर
व्यक्ति अपनी बुद्धि तथा विचारों को अपना
वास्तविक स्वरूप समझता है।
आध्यात्मिक स्तर: यह वह
स्तर है जहाँ व्यक्ति अपने आत्मा (चेतना) को पहचानता है तथा समझता है कि वह शरीर, मन तथा बुद्धि से परे है।
आत्मज्ञान का महत्व
मोक्ष की प्राप्ति:
आत्मज्ञान के माध्यम से व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
आंतरिक शांति: यह व्यक्ति
को भौतिक दुनिया के दुखों तथा तनावों से मुक्त करता है।
स्वतंत्रता: आत्मज्ञान
प्राप्त करने वाला व्यक्ति माया तथा अहंकार से मुक्त हो जाता है।
परम आनंद: यह व्यक्ति को
सच्चे आनंद तथा संतोष की प्राप्ति कराता है।
आत्मज्ञान प्राप्त करने के उपाय
ध्यान: ध्यान के माध्यम से
व्यक्ति अपने मन को शांत करता है व आत्मा से जुड़ता है।
योग: योग के अभ्यास से शरीर, मन तथा आत्मा का संतुलन बनता है।
सत्संग: ज्ञानी तथा संतों के साथ समय बिताने से आत्मज्ञान की
प्राप्ति में सहायता मिलती है।
स्वाध्याय: धार्मिक ग्रंथों तथा आध्यात्मिक साहित्य का अध्ययन करने से ज्ञान
प्राप्त होता है।
सेवा: निस्वार्थ भाव से दूसरों
की सेवा करने से अहंकार कम होता है तथा आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है।
आत्मज्ञान तथा धर्म
सनातन धर्म: सनातन अर्थात
हिंदुत्व में आत्मज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना गया है। उपनिषदों तथा
गीता में आत्मज्ञान का विस्तृत वर्णन है।
बौद्ध धर्म: बौद्ध धर्म
में आत्मज्ञान को निर्वाण की प्राप्ति से जोड़ा गया है।
जैन धर्म: जैन धर्म में
आत्मज्ञान को कर्मों के बंधन से मुक्ति का साधन माना गया है।
आत्मज्ञान के लाभ
जीवन का उद्देश्य:
आत्मज्ञान व्यक्ति को उसके जीवन के वास्तविक उद्देश्य का बोध कराता है।
अहंकार का अंत: यह
व्यक्ति के अहंकार को समाप्त करता है तथा उसे विनम्र बनाता है।
सार्वभौमिक प्रेम:
आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति सभी प्राणियों में एक ही चेतना को देखता है।
भय तथा चिंता से मुक्ति: यह व्यक्ति को मृत्यु तथा भौतिक दुनिया के भय से मुक्त करता है।
अत: आत्मज्ञान एक ऐसी
यात्रा है जो व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वरूप से परिचित कराती है। यह जीवन का
सर्वोच्च लक्ष्य है, जो व्यक्ति को अज्ञान तथा
भ्रम से मुक्त करता है। आत्मज्ञान प्राप्त
करने के लिए नियमित अभ्यास, ध्यान तथा आध्यात्मिक ज्ञान की
आवश्यकता होती है। यह मार्ग कठिन हो सकता है, लेकिन इसकी प्राप्ति से व्यक्ति को असीम शांति तथा आनंद मिलता है।
2.
ब्रह्मज्ञान: सनातन दर्शन तथा आध्यात्मिकता की एक मौलिक अवधारणा है। यह परम
सत्य, परमात्मा या ब्रह्म के
ज्ञान को दर्शाता है, ब्रह्मज्ञान का अर्थ है (सर्वोच्च सत्ता) के स्वरूप के
रहस्यों को समझना तथा उसके साथ एकाकार होना। यह ज्ञान व्यक्ति को मोक्ष की और ले
जाता है तथा उसे सांसारिक बन्धनों से मुक्त करता है। ब्रह्मज्ञान वेदांत दर्शन का
केंद्रीय विषय है तथा इसे हिंदू धर्म के
उच्चतम लक्ष्य के रूप में माना जाता है। ब्रह्मज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है –
"ब्रह्म" तथा "ज्ञान"। ‘ब्रह्म:’ ब्रह्म वह सर्वोच्च सत्ता है
जो निराकार, निर्विकार, अनंत तथा सर्वव्यापी है।
यह संपूर्ण ब्रह्मांड का स्रोत तथा आधार है। ज्ञान: ज्ञान का अर्थ है समझ, अनुभूति तथा प्रत्यक्ष
अनुभव।
इस प्रकार, ब्रह्मज्ञान का अर्थ है
ब्रह्म के सत्य को जानना, उसे अनुभव करना तथा उसके साथ एक हो जाना। यह ज्ञान व्यक्ति को अज्ञान (अविद्या)
से मुक्त करता है तथा परम सत्य की प्राप्ति कराता है।
ब्रह्मज्ञान का महत्व
मोक्ष की प्राप्ति: ब्रहमज्ञान व्यक्ति को अज्ञान से मुक्त करता है तथा परम सत्य की प्राप्ति कराता है।
अज्ञान का नाश: यह ज्ञान व्यक्ति के
अज्ञान एवं भ्रम को दूर करता है।
आंतरिक शांति: ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने
वाला व्यक्ति भौतिक दुनिया के दुखों तथा तनावों से मुक्त हो जाता है।
सार्वभौमिक एकता की
अनुभूति: यह ज्ञान व्यक्ति को यह
समझाता है कि, सभी प्राणी व वस्तुएँ ब्रह्म का ही अंश हैं।
ब्रह्मज्ञान के स्रोत
वेद तथा उपनिषद: वेद तथा उपनिषद ब्रह्म के स्वरूप तथा
उसके ज्ञान का विस्तृत वर्णन करते हैं। उपनिषदों में ब्रह्म को सच्चीदानंद
"सत्-चित्-आनंद" (सत्य-चेतना-आनंद) के रूप में वर्णित किया गया है।
भगवद्गीता: गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को
ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हैं तथा कहते हैं कि ब्रह्म ही सब कुछ है।
वेदांत दर्शन: वेदांत दर्शन ब्रह्मज्ञान का गहन
विश्लेषण प्रस्तुत करता है तथा इसे "अद्वैत" (एकत्व) के रूप में
व्याख्यायित करता है।
गुरु का मार्गदर्शन: ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए
एक ज्ञानी गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक माना गया है।
ब्रह्मज्ञान के लक्षण
ब्रह्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति में निम्नलिखित लक्षण
देखे जा सकते हैं:
वैराग्य: उसे भौतिक सुखों तथा संपत्ति में कोई आसक्ति नहीं
होती।
समदृष्टि: वह सभी प्राणियों में समान भाव रखता है तथा सभी में
ब्रह्म को देखता है।
आंतरिक शांति: उसका मन हर परिस्थिति
में शांत तथा स्थिर रहता है।
निस्वार्थता: वह निस्वार्थ भाव से
कर्म करता है तथा फल की इच्छा नहीं रखता।
ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के उपाय
ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित साधनाएँ
अपनाई जा सकती हैं:
ध्यान: ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को शांत करता था ब्रह्म से एकाकार होता
है।
ज्ञान योग: वेदांत तथा उपनिषदों का अध्ययन करके
ब्रह्म के स्वरूप को समझना।
भक्ति योग: ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण तथा भक्ति के माध्यम से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति।
कर्म योग: निस्वार्थ भाव से कर्म करते हुए ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति।
गुरु की कृपा: एक ज्ञानी गुरु के मार्गदर्शन में
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति।
ब्रह्मज्ञान तथा आत्मज्ञान में अंतर
ब्रह्मज्ञान: यह ब्रह्म (परम सत्ता)
के ज्ञान को दर्शाता है। इसमें व्यक्ति ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है।
आत्मज्ञान: यह स्वयं के वास्तविक
स्वरूप (आत्मा) के ज्ञान को दर्शाता है। इसमें व्यक्ति यह समझता है कि वह शरीर
नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना है।
दोनों का अंतिम लक्ष्य एक ही है – मोक्ष की प्राप्ति तथा
अज्ञान से मुक्ति।
ब्रह्मज्ञान का दार्शनिक आधार: ब्रह्मज्ञान वेदांत दर्शन
का मूल आधार है। वेदांत के अनुसार: ब्रह्म सत्य है: ब्रह्म
ही एकमात्र सत्य है, तथा यह संपूर्ण ब्रह्मांड
का स्रोत है। जगत मिथ्या है: यह संसार ब्रह्म का प्रतिबिंब है तथा
इसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। आत्मा ब्रह्म है:
प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा ब्रह्म का अंश है, अतैव सभी प्राणी एक ही हैं।
ब्रह्मज्ञान आध्यात्मिक जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। यह व्यक्ति को अज्ञान तथा
भ्रम से मुक्त करता है तथा उसे परम सत्य
की प्राप्ति कराता है। ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए ध्यान, ज्ञान, भक्ति तथा कर्म का समन्वय आवश्यक है। यह ज्ञान न केवल
व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करता है, बल्कि उसे संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकत्व की अनुभूति भी कराता है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का परम उद्देश्य है।
अपरा विद्या
अपरा विद्या,
हिंदू दर्शन तथा वेदांत में ज्ञान के दो
प्रमुख प्रकारों में से एक है। अपरा विद्या दो शब्दों से मिलकर बनी है – "अपरा" तथा
"विद्या"। अपरा: का अर्थ है "निम्न" या
"सांसारिक" तथा विद्या: का अर्थ है "ज्ञान" या
"शिक्षा"। अपरा विद्या का अर्थ है वह ज्ञान जो भौतिक तथा सांसारिक विषयों से संबंधित है। यह ज्ञान
व्यक्ति को भौतिक सुख, समृद्धि तथा सफलता प्रदान करता है, लेकिन यह मोक्ष (मुक्ति) की ओर नहीं ले जाता। यह
भौतिक तथा सांसारिक ज्ञान को दर्शाती है, जो मनुष्य को व्यावहारिक
जीवन में सफलता तथा समृद्धि प्रदान करती
है। अपरा विद्या का उद्देश्य व्यक्ति को भौतिक दुनिया के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन
जीने की कला सिखाना है। यह ज्ञान सीमित तथा सापेक्ष है, क्योंकि यह केवल भौतिक सृष्टि तथा उसके नियमों तक ही
सीमित है।
अपरा विद्या में
निम्नलिखित विषय हैं:
1. वेदों का कर्मकांड: यज्ञ, अनुष्ठान तथा धार्मिक
कर्मकांड से संबंधित ज्ञान।
2. व्याकरण: भाषा तथा व्याकरण का
अध्ययन।
3. निरुक्त: शब्दों के अर्थ तथा उनकी व्युत्पत्ति का ज्ञान।
4. छंदशास्त्र: काव्य तथा छंदों का
अध्ययन।
5. ज्योतिष: ग्रहों, नक्षत्रों तथा खगोल
विज्ञान का ज्ञान।
6. धनुर्वेद: युद्ध कला तथा शस्त्र
विद्या।
7. अर्थशास्त्र: अर्थव्यवस्था तथा प्रशासन
का ज्ञान।
8. आयुर्वेद: स्वास्थ्य तथा चिकित्सा
विज्ञान।
9. गंधर्ववेद: संगीत तथा कला का ज्ञान।
अपरा विद्या का महत्व
1. भौतिक सुख की प्राप्ति: अपरा विद्या व्यक्ति को
भौतिक सुख तथा समृद्धि प्रदान करती है।
2. व्यावहारिक जीवन में
सफलता: यह ज्ञान व्यक्ति को
व्यावहारिक जीवन में सफलता तथा प्रगति के
लिए तैयार करता है।
3. सामाजिक व्यवस्था का
संचालन: अपरा विद्या समाज तथा राष्ट्र के संचालन के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान
करती है।
4. व्यक्तिगत विकास: यह व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक तथा बौद्धिक
विकास में सहायक है।
अपरा
विद्या
तथा
परा
विद्या
में
अंतर
1. अपरा विद्या:
o यह भौतिक तथा सांसारिक ज्ञान है।
o यह सीमित तथा सापेक्ष है।
o इसका उद्देश्य भौतिक सुख तथा
सफलता प्रदान करना है।
o यह मोक्ष की ओर नहीं ले
जाती।
2. परा विद्या:
o यह आध्यात्मिक तथा दार्शनिक ज्ञान है।
o यह अनंत तथा परम सत्य से संबंधित है।
o इसका उद्देश्य मोक्ष की
प्राप्ति है।
o यह व्यक्ति को ब्रह्म (परमसत्ता)
के साथ एकाकार कराती है।
अपरा विद्या की सीमाएँ
1. सीमित ज्ञान: अपरा विद्या केवल भौतिक
दुनिया तक ही सीमित है।
2. मोक्ष प्रदान नहीं करती: यह ज्ञान व्यक्ति को
मोक्ष की ओर नहीं ले जाता।
3. अस्थायी सुख: यह ज्ञान केवल अस्थायी
सुख तथा सफलता प्रदान करता है।
4. अज्ञान का कारण: यदि व्यक्ति केवल अपरा
विद्या में ही लिप्त रहता है, तो यह उसे अज्ञान तथा भ्रम में डाल सकता है।
अपरा विद्या तथा आधुनिक शिक्षा
आधुनिक शिक्षा प्रणाली
मुख्य रूप से अपरा विद्या पर आधारित है। इसमें विज्ञान, गणित, साहित्य, कला, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि विषय शामिल
हैं। यह शिक्षा व्यक्ति को व्यावहारिक जीवन में सफलता प्रदान करती है, लेकिन यह आध्यात्मिक
विकास तथा मोक्ष की प्राप्ति में सहायक
नहीं है।
अपरा विद्या भौतिक तथा
सांसारिक ज्ञान है, जो व्यक्ति को व्यावहारिक
जीवन में सफलता तथा समृद्धि प्रदान करती
है। यह ज्ञान समाज तथा राष्ट्र के विकास के लिए आवश्यक है, परन्तु यह मोक्ष की ओर नहीं ले जाता। अपरा विद्या तथा
परा विद्या का संतुलन ही मनुष्य के समग्र विकास हेतु, आवश्यक है। जबकि अपरा विद्या
व्यक्ति को भौतिक सुख प्रदान करती है, परा विद्या उसे आध्यात्मिक उन्नति तथा मोक्ष की ओर ले जाती है। दोनों का सही संतुलन
ही मनुष्य को पूर्णता की ओर ले जाता है।
ॐ शांति शांति शान्ति
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