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रविवार, 26 जनवरी 2025

जीव ऋण

 

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जीव ऋण

सनातन संस्कृति के अनुसार, प्रत्येक ग्रहस्थ व्यक्ति पर पाँच प्रकार के ऋण होते हैं: पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण, तथा मनुष्य ऋण। इनकी संक्षिप्त व्याख्या इस प्रकार है :

  • माता-पिता ने हमें जन्म दिया अतः पितृ ऋण।
  • देवताओं ने मनोवांछित इच्छाओं की पूर्ति प्रदान की अतः देव ऋण।
  • ऋषियों ने अपने त्याग और तपस्या से अर्जित ज्ञान प्रदान किया अतः ऋषि ऋण।
  • विभिन्न जीवों ने आजीवन सेवा प्रदान की अतः भूत ऋण।
  • अन्य मनुष्यों (समाज) के प्रदत्त सहयोग से जीवन यापन संभव हुआ अतः मनुष्य ऋण।

बिना इन ऋणों से मुक्ति के, आत्मा की मुक्ति असम्भव है, अतः इनसे मुक्ति को ग्रहस्थ मानव के जीवन का प्रथम कर्तव्य माना गया है। जो मनुष्य इन ऋणों से मुक्ति के प्रति प्रयत्नशील नहीं रहता वह निश्चित ही दैहिक, दैविक तथा भौतिक - त्रिविध तापों से युक्त दुखी जीवन व्यतीत करता है।

 

मानव अस्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया में, माता-पिता सर्वप्रथम एक डिंब के निषेचन के माध्यम से अपनी वंशानुगत विशेषताओं का संचरण सुनिश्चित करते हैं, जिससे एक अद्वितीय व्यक्तित्व के साथ एक नए जीवन की नींव रखी जाती है एवं एक भ्रूण का निर्माण आरम्भ होता है। तदुपरांत, भ्रूण रूपी जीव अपनी माता के शरीर से आश्रय, भोजन, सुरक्षा प्राप्त करते हुए विकसित होता है। जन्मोपरांत, माता-पिता संयुक्त रूप से शिशु के लालन-पालन का कर्तव्य निभाते हैं। वस्तुतः, जीव अपने पूर्वजों के कारण अस्तित्व में आता है, अतः उस पर पितृ ऋण हो जाता है। इस ऋण की मुक्ति के लिए व्यक्ति को अपने माता-पिता तथा अन्य जीवित पूर्वजों की उनके जीवनकाल में हर प्रकार से सेवा करनी चाहिए। यदि पूर्व पीढ़ी के किसी संबंधी का देहावसान हो जाए, तो उनके प्रति अनुराग को उनके निमित्त श्राद्ध कर्म विधि से व्यक्त करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। जो मनुष्य इस कर्तव्य को आस्था व समर्पण से पूर्ण करता है, वह पितृ ऋण से अवश्य मुक्त हो जाता है। पितृ ऋण से मुक्ति का यह सर्वोत्तम साधन है, इसमें कोई संशय नहीं है।

 

मानव आजीवन, ईश्वर से सुख-सुविधाओं की प्राप्ति हेतु अनगिनत याचनाओं के चक्र में व्यस्त रहता है तथा प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य पदार्थों से अनभिज्ञ होकर असंतुष्ट रहता है। वास्तव में, परमेश्वर सदैव उसका कल्याण करते हैं, परंतु वह अज्ञानवश इसका समुचित धन्यवाद भी व्यक्त नहीं करता, फलस्वरूप वह देव ऋण का ऋणी हो जाता है। देव ऋण से मुक्ति का सरल तम उपाय है: अपने कुलदेवता, इष्टदेव की उपासना सहित पंच देवों (गणेश, शिव, शक्ति, सूर्य, और विष्णु) का यथाशक्ति पूजन, यज्ञ और हवन करना। यज्ञ आहुतियों से देवताओं की पुष्टि होती है क्योंकि वे (वायु+आकाश) सूक्ष्म-शरीरी होने के कारण गंध से ही संतुष्ट हो जाते हैं। अतः, इनकी कृपा प्राप्ति और प्रसन्नता हेतु हमें समय-समय पर धार्मिक कर्मकांड, यज्ञ तथा हवन इत्यादि आयोजित करने के प्रति तत्पर रहना चाहिए।

 

आधुनिक संदर्भ में प्राचीन ऋषि-मुनियों को 'मंत्रदृष्ट्रा' कहा जाता है, अर्थात वे मंत्रों एवं उनमें समाहित शक्तियों के प्रत्यक्ष अनुभव कर्ता थे। इस विषय पर हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं व हमें ज्ञात है कि यह कैसे संभव है। उन्होंने मानव कल्याण के लिए विभिन्न मंत्रों का ज्ञान दिया, शास्त्र-पुराण, स्मृतियों की रचना की। ये ग्रंथ मानव की बुद्धि के अज्ञान के अंधकार को दूर कर उसे कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं, सन्मार्ग पर प्रेरित करते हैं। अतः समग्र समाज और प्रत्येक व्यक्ति उनका ऋणी है। ऋषियों द्वारा प्रदत्त इस ज्ञान को समझकर,  आध्यात्मिक ग्रंथों जैसे श्री मदभगवदगीता, श्रीमद्भागवत, श्री रामचरित मानस इत्यादि का अध्ययन करना चाहिए। यज्ञोपवीत धारी व्यक्ति को प्रतिदिन तीन संध्या व गायत्री मंत्र का विधिपूर्वक जप करना चाहिए, सामान्य ग्रहस्थों को उचित विधि से देवताओं का पूजन करना चाहिए। ऋषियों के दिखाए मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य ऋषि ऋण से मुक्ति पाता है तथा उसका जीवन कल्याण होता है।

 

बिना अन्य जीवों की सहायता के जीवन की कल्पना असंभव है। एक नवजात अपनी माँ के दूध के बाद गाय के दूध का सेवन करता है। मानव को जीवित रखने के लिए विभिन्न फल-फूल, सब्जियाँ, अनाजों का भोजन आवश्यक है। कीट-पतंगे व चींटियाँ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संक्षेप में, प्रत्येक मानव अन्य जीवों का ऋणी है, एवं इस ऋण से मुक्ति के लिए उसका कर्तव्य है कि वह प्रकृति के जीवों की यथासंभव सहायता करे। वृक्षों को पानी देना, पक्षियों को अनाज देना, पशुओं को चारा देना, इत्यादि, किसी भी प्राकृतिक संसाधन को नष्ट न करना उसके आवश्यकता से अधिक उपयोग से बचना तथा सृष्टि के छोटे बड़े प्रत्येक जीव के प्रति दयाभाव-प्रेमभाव रखना, यही भूत ऋण से मुक्ति का सरल मार्ग है।

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, और आपसी सामंजस्य के बिना उसका जीवन असंभव है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, प्रत्येक मानव को अन्य मनुष्यों की आवश्यकता होती है। एक कृषक अन्न उपजाने हेतु अनेक कष्ट सहता है, जिससे पूरे समाज की भूख मिटती है। सैनिक अपने बलिदान से देश और समाज की रक्षा करता है। प्रत्येक क्षण, मानव अन्य व्यक्तियों का ऋणी होता जाता है।

 

श्रीकृष्ण भगवान ने गीता में कहा है, "जो सब में मुझको देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।" समभाव और समदृष्टि का पालन, अभिमान रहित जीवन यापन, करुणा भाव से समाज के दुर्बल-निर्बल व्यक्तियों की तन-मन, वस्त्र, वस्तुओं, अन्न-धन आदि से सहायता करने से मनुष्य ऋण से मुक्ति प्राप्त करता है।

 

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, पितृ ऋण के प्रभाव से व्यक्ति पूर्णत: संतानहीन हो सकता है अथवा उसकी संतान की कुंडली में “पितृ दोष” होता है। ऋषि ऋण से मुक्त न होने पर मूढ़ बुद्धि, दुष्ट बुद्धि या “गुरु-चांडाल” दोष  युक्त कुंडली वाली संतान का जन्म होता है। भूत ऋण से मुक्त न होने पर संतान की जन्मकुंडली में “काल-सर्प दोष” योग का निर्माण होता है। मनुष्य ऋण से मुक्ति हेतु प्रयत्न न करने से व्यक्ति विभिन्न प्रकार के विघ्नों एवं कष्टों से युक्त जीवन का भोग करता है। संक्षेप में इन ऋणों का प्रभाव न केवल स्वयं उस व्यक्ति वरन उसकी संतानों के जीवन की गुणवत्ता पर भी पड़ता है।

 

इस प्रकार, यह ज्ञात होता है कि एक सामान्य गृहस्थ इन पांच ऋणों से मुक्त होने प्रयत्न के बीच ही जीवन को कैसे सुविधाओं और साधनों से युक्त, क्लेशों और आधि-व्याधि से मुक्त, तथा पंच विकारों से अप्रभावित रखते हुए आत्मोन्नति और आत्मोद्धार के मार्ग पर आगे बढ़ सकता है।

 

आपका सानिध्य मेरा सौभाग्य है, यदि आपके कोई सुझाव, प्रश्न या विचार हों, तो ईमेल द्वारा jyotisharun@gmail.com  पर अवश्य साझा करें।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

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