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सोलह संस्कार
जीवन की
उत्पत्ति, एक निषेचित डिम्ब की कोशिकाओं के निरंतर विभाजन से विकसित होने वाले
भ्रूण के भीतर होती है। कोशिकाओं का विभाजन अनवरत जारी रहने से भ्रूण का निर्माण
होता है। भ्रूण अवस्था में ही प्राण व चेतना का संचार हो जाता है। भ्रूण भी विचार तथा
अनुभव करने में सक्षम होता है, अतः यहीं से संस्कार आरंभ हो जाते हैं।
व्यास
स्मृति में वर्णित सोलह संस्कार इस प्रकार हैं: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,
नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,
चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध,
यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त,
समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि। सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार तथा मृत्योपरांत
अंत्येष्टि अंतिम संस्कार होता है। ये सभी संस्कार मनुष्य के दैवीय जगत से संबंध
स्थापित करने हेतु रचित हैं। इनके माध्यम से व्यक्ति का जीवन सद्गुणों से परिपूर्ण
होता है एवं उसे सही दिशा में अग्रसर होने में सहायता मिलती है।
जिस प्रकार उत्तम
फसल प्राप्ति हेतु कृषक सर्वप्रथम भूमि को तैयार करता है, गर्भाधान संस्कार के अंतर्गत, उत्तम संतान की प्राप्ति हेतु, भ्रूण में ही
उत्तम विचारों का रोपण सुनिश्चित किया जाता है। जन्मोपरांत, पुंसवन,
सीमन्तोन्नयन, जातकर्म व नामकरण संस्कार नवजात
का दैवीय जगत से संबंध स्थापित करते हैं। इसके बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार
आते हैं, जो बालक को अनुशासन और संयमित जीवन का ज्ञान प्रदान
करते हैं।
युवावस्था
में विवाह संस्कार अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो स्त्री और पुरुष को
पारस्परिक बंधन में बाँध कर एक सुखी गृहस्थ जीवन प्रदान करता है। मान्यतानुसार,
यह संस्कार जीवन-मृत्यु की सीमा से परे, जन्म-जन्मांतर
तक प्रभावी होता है। अतः, सनातन धर्म में वैवाहिक संबंध
विच्छेद अथवा इसके विधान का सर्वथा अभाव है। इसके विपरीत, म्लेच्छों
ने विवाह को केवल भोग और शारीरिक संतुष्टि का साधन माना है, जिसमें
स्त्री-पुरुष के बीच कोई आत्मिक संबंध नहीं होता। इस कारण, उनमें
विवाह पूर्व तथा विवाहोत्तर शारीरिक संबंध, तथा वैवाहिक
संबंध विच्छेद जैसे चारित्रिक दोष दृष्टिगोचर होते हैं।
अंततः जब यह
शरीर अपनी जीवन यात्रा को पूर्ण करके प्राण विहीन हो जाता है, तब शारीरिक पंचतत्वों को पुनः मूल पंचतत्वों में विलीन करने के लिए
अंत्येष्टि संस्कार संपन्न किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि अंत्येष्टि संस्कार
में वर्णित कर्मकांड द्वारा जीव की अतृप्त वासनाएं शांत होती हैं। वह सभी मोह माया
इत्यादि बंधनों को त्यागकर पृथ्वी लोक से
परलोक गमन करता है। अंत्येष्टि संस्कार में पाँच पिंडदान किए जाते हैं। मनुष्य के
मस्तिष्क को उसके जीवन का वास्तविक केंद्र माना गया है, और
उसके विकास का क्रम अनवरत जारी रखने हेतु, कपाल क्रिया का
कर्मकांड किया जाता है। अस्थि विसर्जन, पिंडदान और शुद्धिकरण
के यज्ञ से, जीव के प्रथम नामकरण यज्ञ से आरम्भ हुआ
अभिमंत्रित आहुतियों का चक्र भी पूर्ण हो जाता है।
पुरातन संस्कारों को
त्यागने के परिणामस्वरूप वर्तमान मानव समाज पथभ्रष्ट होकर विभिन्न प्रकार के दुःख
क्लेशों से युक्त जीवन व्यतीत कर रहा है। इन संस्कारों
की पुनर्स्थापना जीवन को संतुलित एवं शांत करेगी।
यह था जन्म से मृत्यु तक के धार्मिक संस्कारों का संक्षिप्त ज्ञान, आपका सानिध्य मेरा सौभाग्य है, यदि आपके कोई प्रश्न या विचार हों, तो अवश्य साझा करें।
ॐ शान्तिः शान्तिः
शान्तिः
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