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इन्द्र
देव
वैदिक साहित्य में इन्द्र देव को सर्वोच्च महत्ता प्राप्त है। वे ऋग्वेद के
महत्त्वपूर्ण देवता हैं, इसलिए ऋग्वेद के लगभग एक-चौथाई सूक्त
इन्द्र देव से सम्बंधित हैं। 250 सूक्तों के अतिरिक्त,
50 से अधिक मंत्रों में इन्द्र देव की स्तुति की गई है। अर्थवशीर्ष
स्तोत्रों में देवी-देवताओं को इन्द्र के समकक्ष सम्बोधित किया गया है। सात अश्वों
युक्त रथ के प्रयोग के कारण तीन-चार सूक्तों में वे सूर्य का प्रतीक भी माने गए
हैं। पौराणिक कथाओं में इन्द्रदेव वर्षा के अधिपति हैं, वर्षा
से पृथ्वी पर अन्न-जल उपलब्ध होता है जिससे मानवता के अस्तित्व की रक्षा होती है। उपनिषदों
में, इन्द्र को सत्य ज्ञान-प्राप्ति के लिए उत्सुक बताया गया
है परन्तु यदाकदा, किसी असुर, देव,
ऋषि या मनुष्य इत्यादि की घोर तपस्या से, उन्हें
अपना इन्द्रासन तथा 'देवराज' उपाधि छिन
जाने का भय सताता है, फलस्वरूप भयभीत होकर वे
अनुचित-अधार्मिक कार्य भी कर बैठते हैं।
इन्द्र देव को स्वर्ग तथा देवताओं का सम्राट 'देवराज' कहा जाता है, जिन्हें समुद्र मंथन से प्राप्त अमूल्य
निधियों के संरक्षक और ऋषियों के पालनकर्ता का दायित्व प्राप्त है। उनकी राजसभा
सुधर्मा है, उनके मंत्री मण्डल में सहस्र मंत्री हैं। उनकी पत्नी का नाम शची या
इन्द्राणी है, उनका प्रसिद्ध आयुध अत्यंत कठोर 'वज्र' है, जिसकी प्रहार क्षमता
तड़ित झंझा के समान भयंकर है। इन्द्रदेव का प्रिय वाहन ऐरावत नामक हाथी है,
उनका अश्व उच्चैःश्रवा है और उनकी गाय कामधेनु हैं।
धार्मिक ग्रंथों अनुसार, इन्द्रदेव का निवास स्थान 'स्वर्गलोक' है, जहां वे 'इन्द्रासन' पर विराजमान होकर समस्त देवताओं की सभा
की अध्यक्षता करते हैं। इन्द्रदेव अत्यंत रूपवान हैं तथा एक सहस्त्र से अधिक
अप्सराओं द्वारा सेवित हैं परन्तु उन्हें ग्यारह अप्सराएं अति प्रिय हैं। इन्द्रसभा
में ग्यारह अप्सराएं नृत्य करती हैं और चौंसठ गन्धर्व संगीत से देवेन्द्र का
मनोरंजन करते हैं।
वस्तुतः मनुष्य के इन्द्रिय सुख और लौकिक वस्तुओं के भोग के माध्यम से
उल्लासपूर्ण मनोरंजन एवं सुख प्राप्ति की तीव्र इच्छा को ही "इन्द्र" दर्शाया
गया है, यह मानवीय चेतना है, जिसका रथ हमारा शरीर है, रथ के अश्व हमारे सात चक्र हैं, रथ की रास (लगाम) पाँचों कर्मेन्द्रियाँ
हैं। ऐरावत के चार दांत जीवन के चार आश्रम, तीन सिर शरीर
की तीन ग्रन्थियां हैं, सात सूंड
सप्ताह के सात दिवस तथा शुक्ल वर्ण मन की पवित्रता है, कामधेनु सत्कर्मों द्वारा प्राप्त होने
वाली संतुष्टि है, मानव जीवन
इन्द्रसभा है, अहंकार
इन्द्रासन है, जीवन से प्राप्त
अनुभव मंत्रिमंडल है, मनोरंजन हेतु अप्सराओं के रूप में सहस्त्रों लिप्साएं ही
कल्पनाओं के गन्धर्व गीत-संगीत पर नृत्य करती हैं, जबकि सांसारिक माया ने ही असंख्य
यक्ष, नागों तथा किन्नरों इत्यादि का रूप धारण किया हुआ है।
जब मनुष्य की चेतना, इंद्र के समान माया
के प्रभाव में आकर अज्ञानवश इस काल्पनिक स्वर्ग का भोग करती है तथा अहंकार से युक्त
होकर अनुचित व अधार्मिक कार्यों में व्यस्त रहती है, तब वह अपने वास्तविक लक्ष्य 'ज्ञानार्जन से आत्मोधार' को विस्मृत कर देती है। ऐसे में, पाँच विकारों से त्रस्त मानव; शंका,
अनिश्चित
भविष्य, कष्ट, व्याधि, जरा एवं मृत्यु के कारण सदैव दुखी, चिंतित तथा भयभीत रहता है।
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ॐ
शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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