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आश्रम व्यवस्था
प्रत्येक व्यक्ति जीवन
भर अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है। आधुनिक समाज
में किसी व्यक्ति की सफलता का मूल्यांकन उसके द्वारा एकत्रित धन, संपत्ति तथा सुविधाओं की
मात्रा से किया जाता है। प्रत्येक गृहस्थ का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने परिवार
की सम्पूर्ण मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करें एवं अपने दायित्वों का
उचित रूप से निर्वाह करें। इसी प्रयास में व्यक्ति अक्सर “समय”, जिसे ईश्वर द्वारा
प्रदत्त अमूल्य पूंजी माना गया है, की अवहेलना कर देता है।
धार्मिक ग्रंथों के
अनुसार, कलियुग
में मनुष्य की अधिकतम आयु की संकल्पना 120 वर्ष तथा औसत 100 सौर वर्ष की गई
है। मानव जीवन को मुख्यतः चार आश्रमों में विभाजित किया गया है - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास। प्राचीन ऋषियों ने इन चारों
आश्रमों हेतु एक सुविचारित, सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध जीवन प्रणाली का निर्माण
किया।
इस प्रणाली के अनुसार:
- ब्रह्मचर्य आश्रम: जीवन का प्रारंभिक चरण है, जिसमें व्यक्ति शिक्षा ग्रहण करता है एवं अपने चरित्र का निर्माण करता
है। यह काल संयम द्वारा जीवन के सकारात्मक उद्देश्य की प्राप्ति पर केंद्रित
है। विद्यार्थियों द्वारा अपने जीवन में ज्ञानार्जन के प्रति एकाग्रता,
समुचित नैतिक अनुशासन तथा दुर्व्यसनों से मुक्त जीवन शैली का पालन
करके इसे आज के समय में भी कार्यान्वित किया जा सकता है।
- गृहस्थ आश्रम: दूसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति संसार के
सुख-दुःख का अनुभव करता है। वह विवाह करता है, सृष्टि चक्र को
संतानोत्पत्ति द्वारा गतिशील रखता है, परिवार का पालन-पोषण करता है और सामाजिक एवं
आर्थिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है। वर्तमान आधुनिक युग में, अपने निर्धारित कर्म को निरंतर करते हुए परिवार और समाज के प्रति
कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करके गृहस्थ आश्रम में इसके मूल उद्देश्य की
प्राप्ति संभव है।
- वानप्रस्थ आश्रम: तीसरा चरण है, जिसमें व्यक्ति स्वाध्याय
और भजन के माध्यम से मोह-माया का त्याग करता है तथा एकांतवास में ईश्वर की
उपासना करता है। वर्तमान में नाना प्रकार के साधन उपलब्ध हैं जिनके प्रयोग से
व्यक्ति बिना किसी विशेष प्रयत्न के इस आश्रम का पालन कर सकता है।
- संन्यास आश्रम: अंतिम चरण है, जिसमें व्यक्ति पूर्णतः
सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर ईश्वर में समर्पित हो जाता है एवं मोक्ष की
प्राप्ति का प्रयास करता है। यदि स्वाध्याय तथा ध्यान विधियों का उचित और
समर्पित प्रयोग किया जाए तो इस आश्रम का पालन भी वर्तमान युग में संभव है।
आश्रम व्यवस्था प्रणाली के अवलंबन द्वारा व्यक्ति चरणबद्ध
रूप से सुव्यवस्थित तथा उद्देश्यपूर्ण जीवन यापन हेतु दक्षता को प्राप्त करता है
जिसके अंतर्गत सर्वप्रथम ज्ञान, सांसारिक अनुभव प्राप्त करता है तथा अंततः ईश्वर
में समर्पित होकर मोक्ष की प्राप्ति करता है। संकल्प
शक्ति एवं अनुशासित जीवन शैली के पालन से
जीवन के सम्पूर्ण लाभों की प्राप्ति के माध्यम से ही व्यक्ति व्यक्तिगत व सामाजिक
जीवन में संतुलन बनाए रख सकता है, यही आश्रम व्यवस्था का मूलाधार है। आधुनिक व्यस्त
जीवनशैली फलस्वरूप तीव्र परिवर्तनशील समाज में भी, यह पूर्णतः प्रासंगिक है।
सनातन धर्मी समाज पर विभिन्न शक्तियों के प्रत्यक्ष आक्रमणों,
परोक्ष षड्यंत्रों का प्रभाव तथा संचार क्रांति द्वार जनित परिस्थितियां हमारे
समक्ष एक गंभीर चुनौती है। ऐसे में वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार एवं धार्मिक
प्रणालियों का शुद्ध पालन हमारी सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण द्वारा समाज का
पुनरुत्थान ही एकमात्र उपाय है। केवल सकारात्मक प्रयासों के माध्यम से हम एक
संतुलित, उद्देश्यपूर्ण एवं समृद्ध जीवन व्यतीत करते हुए, भावी पीढ़ियों
हेतु एक स्थायी तथा सशक्त समाज का निर्माण कर सकते हैं।
इस गंभीर समस्या पर आपके विचार एवं सहयोग अत्यंत महत्वपूर्ण
हैं जिनकी सहायता से हम इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति कर सकते हैं। अतः अनुरोध है
कि अपने विचार, सुझाव तथा जिज्ञासा से मुझे अवश्य अवगत कराएं।
ॐ शान्तिः शान्तिः
शान्तिः
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