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यंत्र
आज तंत्रशास्त्र के अंतर्गत आने वाले यंत्रो पर विचार
करेंगे, सनातन धर्म में, ईश्वर की उपासना हेतु देव प्रतिमाओं तथा यंत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है। वर्तमान
समय में देव प्रतिमा पूजन अधिक प्रचलित है परन्तु, सनातन धर्म में यंत्रपूजन का भी विशेष महत्व है।
प्रत्येक ईश्वरीय रूप का एक ध्यान मंत्र होता है, जिसमें उनके स्वरूप का वर्णन किया गया है। प्रत्येक
देव-प्रतिमा का निर्माण इस मन्त्र के आधार पर किया जाता है। जबकि, तंत्र शास्त्र में देवी-देवताओं के स्वरूप को अंकों व
ज्यामितीय आकृतियों के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया जाता है। उदाहरण के
लिए, शिव को उर्ध्वोमुखी त्रिकोण एवं शक्ति को अधोमुखी त्रिकोण द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। यंत्र के केंद्र में स्थित बिंदु उत्पत्ति या
साधना के लक्ष्य का प्रतीक होता है।
यंत्रों का निर्माण एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रक्रिया
है। इसके लिए भोजपत्र, धातुओं के पतरे, पशुओं की चर्म, गोरोचन, सिन्दूर, तथा विशेष परिस्थितियों में विभिन्न पशुओं की चर्म पर स्याही
के रूप में रक्त का भी प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त, यंत्रों का निर्माण भूमि पर गुलाल जैसी सामग्रियों का
उपयोग करके या पत्थरों पर उत्कीर्ण करके भी किया जाता है। यंत्र अथवा देव प्रतिमा
के निर्माण के उपरान्त, उसमे उर्जा के संचार हेतु, उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती
है।
देव प्रतिमा की स्थापना हेतु सम्पूर्ण विधि विधान से
प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न की जाती है। किसी भी देवी-देवता के प्राण प्रतिष्ठित
विग्रह (प्रतिमा) की उपासना, उनके पूर्व निर्धारित मंत्रों, सूक्तों, स्तोत्रों, विविध
उपचारों एवं सामग्रियों के माध्यम से सम्पन्न होती है। इस प्रक्रिया में साधक अपने
भीतर की ऊर्जा को इन उपचारों व मंत्रों के
माध्यम से यंत्र या मूर्ति पर प्रेषित करता है विग्रह इस उर्जा को सांद्रित कर पुन
साधक के शरीर पर एवं परावर्तित करता है। परिणामस्वरूप, साधक के सुप्त शारीरिक चक्र
सक्रिय हो जाते हैं, एवं उपासक की चेतना ब्रह्माण्ड में ईश्वरीय से जुड़
जाती है व उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्थिति दोनों में सकारात्मक परिवर्तन होते हैं।
यंत्र भी इसी सिद्धांत से कार्य करते हैं तथा यंत्र की
भी प्राण प्रतिष्ठा आवश्यक होती है। अप्रतिष्ठित यंत्र केवल आकृति मात्र होता है,
फलतः लाभ प्रदान करता। तांत्रिक यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा अर्थात जागृति हेतु
तन्त्र शास्त्र में सम्पूर्ण विधि विधान, मुहूर्त इत्यादि वर्णित हैं तथा इनके अतिरिक्त, सूर्य
एवं चन्द्र ग्रहण के सूतक काल, दीपावली तथा होलिका दहन की रात्रि इत्यादि भी इस
हेतु प्रशस्त मानी गयी है।
प्रत्येक प्राण प्रतिष्ठित यंत्र की उर्जा एक
निर्धारित अवधि हेतु ही क्रियाशील रहती है, तदुपरांत, उसकी उर्जा का पुनर्जागरण
आवश्यक है। सरल शब्दों में जिस प्रकार से एक मोबाइल फोन की क्रियाशीलता बैटरी पर निर्भर
होती है तथा एक निश्चित समयोपरांत उसे पुन आवेशित भी करना होता है,
अन्यथा उसका प्रयोग नहीं हो सकता। उसी प्रकार प्राण प्रतिष्ठित
यंत्र की ऊर्जा को भी, समय-समय पर पुनः जागृत करना आवश्यक होता है। इस प्रक्रिया
के माध्यम से यंत्र अपनी प्रभावशीलता तथा सकारात्मक फल प्रदान में सक्षम रहता है।
इस प्रकार हमें तंत्र शास्त्र के अभिन्न अंग, “यंत्र”
सम्बन्धी संक्षिप्त ज्ञान प्राप्त हुआ । हमें
ज्ञात है कि, सम्पूर्ण ब्रह्मांड पदार्थ एवं ऊर्जा (मैटर तथा एनर्जी)
के संयोजन से निर्मित है,अतः तंत्र शास्त्र, मन्त्र को ऊर्जा
व यंत्र को पदार्थ रूप में प्रयोग करके, ब्रह्मांड की केंद्रीय शक्तियों से मनुष्य
का आत्मिक संबंध, से स्थापित करने का विस्तृत ज्ञान प्रदान करता है। भविष्य में इस
विषय में अधिक अन्वेषण करेंगे।
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः
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