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सोमवार, 27 जनवरी 2025

अग्नि

 

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अग्नि

 

ऋग्वेद दर्शन, नीतिशास्त्र और संस्कृति के अतुलनीय ज्ञान का भंडार है। आदर्श संस्कृति तथा पुरातन सभ्यता से सम्बन्धित ज्ञान की समुचित व्याख्या ऋग्वेद से ही प्राप्त होती है। वेदों के अनुसार अग्नि देवएक अत्यंत ही महत्वपूर्ण देवता हैं, क्योंकि अग्नि के ही माध्यम से ही ईश्वर से मनुष्य का सम्बन्ध स्थापित होता है। पुराणों के अनुसार, यज्ञीय अग्नि में सभी देवताओं के मुख समाहित हैं अतएव आहुति के रूप में समर्पित पदार्थ "हविष्य" को देवताओं तक पहुंचाना इनका कार्य है 

अग्नि का जन्मस्थान स्वर्ग है तथा मातरिश्वा द्वारा जन कल्याणार्थ इन्हें वसुंधरा पर लाया गया। वेदों में इनकी माता देवी सरस्वती तथा पिता भगवान ब्रह्मा हैं एवं, शिवपुराण में वैश्वदेवाग्नी की माता समिधा तथा जल इनके पिता वर्णित हैं। अग्नि की पत्नी स्वाहा हैं तथा इनके उनचास (49) पुत्र हैं। 

अग्नि के रूप, इनके स्थान द्वारा निर्धारित हैं : आकाश में सूर्य रूपा, वायुमंडल में विद्युत रूपा एवं पृथ्वी पर अग्नि रूपा है। पृथ्वी पर स्थित अग्नि को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है: गार्हपत्य (ग्रहस्थों द्वारा प्रयुक्त), आवाहनीय (अग्निहोत्र/पूजन हेतु प्रयुक्त), तथा दक्षिणाग्नि (अन्येष्टि व पितृकर्म में प्रयुक्त)। प्रतिदिन (सप्ताह के सातों दिन) प्रयोग होने के कारण, इनकी विभिन्न सात जिव्हाएं हैं, अतः सप्तजिव्हा तथा स्पर्श मात्र से पदार्थों का पवित्रीकरण करने से पावक संबोधित किया गया है। प्रकाश, ताप एवं धूम्र यह तीनों अग्नि की उपस्थिति के परिचायक हैं। 

पौराणिक ग्रन्थों के सर्वाधिक श्लोक अग्नि की अपरंपार महिमा के वर्णन को ही समर्पित हैं, ऋग्वेद के  अनुसार समस्त विश्व की अग्नि वैश्वानर अग्नि है, यज्ञों में आहुतियों हेतु प्रयुक्त अग्नि वैश्वदेव अग्नि है तथा वैवाहिक सम्बन्ध में देवताओं के साक्षी रूप में उपस्थिति को दर्शाने वाली अग्नि सप्तपदी अग्नि। (स्मरण रहे इसी कारण हिन्दू विवाह संस्कार एक जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है तथा इसके विच्छेद का कोई प्रावधान ही नहीं है)। इसके अतिरिक्त जीवनपर्यंत प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान में अग्नि का प्रयोग होता है तथा मृत्योपरांत अंत्येष्टि संस्कार नामक महायज्ञ में शरीर की आहुति "दक्षिणाग्नि" में समर्पित होती है। 

हमें ज्ञात है कि मानव शरीर में पाँच तत्वों में से अग्नि एक प्रमुख तत्व है, जिसका निवास मणिपूरक चक्र में होता है। यह चक्र आत्मविश्वास, शक्ति, व आत्म-सम्मान से संबंधित है तथा शारीरिक उष्मीय ऊर्जा का केंद्र माना जाता है। पाचनक्रिया में जठराग्नि सहायक होती है, शरीर निर्माण में धात्वाग्नि एवं पंचतत्व संतुलन में भूताग्नि महत्वपूर्ण होती है। मानसिक विचारों की उत्पत्ति में मनोग्नि तथा प्राणों की ऊर्जा में प्राणाग्नि का योगदान होता है। इसके अतिरिक्त, मानवीय इच्छाओं और आकांक्षाओं की अग्नि तृष्णाग्नि, वासनाओं की अग्नि कामाग्नि, ज्ञान की तीव्र इच्छा ज्ञानाग्नि, एवं मुक्ति की लालसा को मोक्षाग्नि की संज्ञा  से सम्बोधित किया गया है। वैदिक ग्रन्थों में पृथ्वी के वातावरण तथा प्रत्येक जीव को प्रभावित करने वाली सूर्याग्नि, ताराग्नि तथा विद्युताग्नि तीन आकाशीय अग्नियाँ भी वर्णित है।

सनातन में वेदों में वर्णित पांच प्रमुख देवताओं इंद्र, अग्नि, वायु, वरुण, सूर्य व चंद्र एवं अन्य देवस्वरूपों की उपासना की वैदिक विधियाँ ही प्रचलित थीं। परंतु कालांतर में भारतवर्ष पर विभिन्न म्लेच्छों के आक्रमणों से गुरुकुलों की समाप्ति हो गई, जिससे संस्कृत भाषा में उपलब्ध अमूल्य ज्ञान से हमारा समाज वंचित हो गया, सनातन संस्कृति तथा धरोहर को अतुलनीय क्षति पहुंची। वर्तमान अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने पुरातन सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा और सात्विक जीवन प्रणाली को भी पूर्णतया नष्ट कर दिया है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

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