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मंगलवार, 28 जनवरी 2025

वायु तथा जल

 

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वायु तथा जल

सनातन धर्म में वायु तत्व की उपासना का एक अति महत्वपूर्ण स्थान है जिसके देवता पवन देव हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में इनका व्यापक वर्णन मिलता है। यह ब्रह्माजी के पुत्र हैं, इनकी पत्नी का नाम देवी स्वास्थी हैं, तथा इनकी पुत्री ईला हैं, जिनका विवाह “ध्रुव” से हुआ है हनुमानजी एवं महाबली भीम के आध्यात्मिक पिता भी पवनदेव ही हैं

वायुदेव श्वास, जीवन एवं प्राण के अधिष्ठाता हैं, सर्व प्राणियों के जीवन रक्षक है अतः "प्राणदेव" भी वही है। पवन देव का स्वरूप अदृश्य, अत्यंत गतिशील, शक्तिशाली व तेजस्वी है। इनका वाहन हिरण तथा सहस्त्र अश्वों युक्त अलौकिक रथ भी है इनके रथ चलने से वायु की गति, दिशा, उर्जा, शक्ति तथा वेग का निर्धारण होता है। वायु देव का दैविक कर्तव्य अग्निहोत्र में अग्नि में समर्पित हविष्य की आहुतियों को देवताओं तक पहुंचाना भी है, वेदों के अनेकों श्लोक, मंत्र, सूक्त तथा ऋचाएं इत्यादि उन्हें प्रचंड तेजस्वी देवता घोषित करती हैं। ऋग्वेद में वर्णित वायु-सूक्त इनकी भौतिक तथा दैविक शक्तियाँ दर्शाता है

दैनिक पूजन, मानसिक ध्यान,, विशेष साधना, देव उपासना तथा समाधि इत्यादि में एकाग्रता प्राप्ति हेतु, सर्वप्रथम प्राणायाम ही किया जाता है।  मानव शरीर मे वायु-तत्व, मनुष्य शरीर के मेरुदंड में स्थित अनाहतचक्र  स्थित उर्जा का नियंत्रक है  मानव के आत्मविश्वास, आत्मा तथा सामाजिक सामंजस्य क्षमता व क्षमा, प्रेम, ज्ञान, करुणा इत्यादि भावनाएं का कारक वायु-तत्व है।

आयुर्वेद के अनुसार,  शरीर में प्रत्येक स्थूल एवं सूक्ष्म धात्विक रचना का कारक वायु तत्व ही है। वायु से ही घ्राण, स्वर तथा श्रवण शक्ति कार्य करती है। आयुर्वेद में वायु को वात सम्बोधित किया गया तथा मानव शरीर में व्यान, समान, अपान, उदान तथा प्राण पांच प्रकार की वायु (वात) वर्णित हैं तथा इनके असंतुलन से शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगों के कारण तथा निवारण की विधियाँ भी उपलब्ध हैं। पतंजलि योगसूत्र ने विभिन्न प्राणायाम (श्वक्रिया नियन्त्रण) विधियों के प्रयोग द्वारा रोगमुक्त जीवन प्रणाली का विस्तृत वर्णन प्रदान किया है।

ऋग्वेद में जल के देवता वरुण देव का वर्णन इस प्रकार किया है वरुण देव जल लोक के अधिपति हैं, वे कश्यप ऋषि की पत्नी देवमाता अदिति के ग्यारहवें पुत्र हैं। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार, वरुण देव की पत्नी का नाम चर्षणी है। वरुण देव का वाहन मगरमच्छ है तथा वे नैतिक शक्ति के नियंत्रक हैं।

वैदिक धार्मिक अनुष्ठान में सर्वप्रथम अभिमंत्रित जल द्वारा शुद्धिकरण होता है क्योंकि, जल पवित्रता का द्योतक है, जीवन का आधार है तथा अमृत है। मेघों की वर्षा, हिम, झरने सभी को वरुणदेव का भौतिक जगत को वरदान कहा गया है फलस्वरूप सनातन के सभी तीर्थस्थल जल स्रोतों, पवित्र नदियोताडागों, सरोवरों के समीप स्थित होते हैं।

भारतवर्ष में प्रत्येक नदी को देवी स्वरूपा तथा पूजनीय माना जाता है परन्तु, गंगा जी को सर्वाधिक पवित्र नदी माना गया है इन्हें महऋषि भागीरथ कठिन तपस्या एवं महान प्रयत्नों के उपरान्त स्वर्गलोक से वसुंधरा पर पितृ मुक्ति हेतु लाये तथा शिवजी ने अपनी जटाओं में धारण करके इनके भीषण वेग को नियंत्रित किया तब से यह मानव कल्याण के लिए निरंतर प्रवाहित हो रही हैं। गंगा जल का महत्व वर्णन करना असंभव है और इसका प्रत्येक धार्मिक कार्य में उपयोग होता है। व्यक्ति की मृत्यु के समय उसके मुंह में गंगा जल डाला जाता है, ताकि उसे मोक्ष प्राप्त हो सके। इसी प्रकार, अन्य नदियों से संबंधित कथाएँ हमारे धार्मिक ग्रंथों का अभिन्न हिस्सा हैं। सनातन धर्म ने जल सरक्षण तथा प्रदूशन से रक्षा हेतु ही नदियों को पूजनीय बताया है। इस विषय पर पृथक से विचार करेंगे।

यह सत्य है कि जीवन की उत्पत्ति सागर में हुई थी और हमारे शरीर का लगभग 75% जल से बना है। शरीर के रक्त और अन्य सम्पूर्ण रसों का आधार भी जल ही है। सात चक्रों में से "स्वाधिष्ठान चक्र" जलीय ऊर्जा को नियंत्रित करता है। यह चक्र मानव की कल्पना, नैतिकता, आध्यात्मिक ज्ञान और चेतना, पिपासा और संतुष्टि को प्रभावित करता है। साथ ही, यह मित्रता व सहानुभूति की भावना तथा प्रजनन शक्ति के लिए भी मुख्य कारक है।

आयुर्वेद में शुद्ध जल को "अमृत" के रूप में वर्णित किया गया है। जल को जीवन का सार, स्वास्थ्य का स्तंभ माना गया है, जो जीवन के सभी पहलुओं में संतुलन तथा समृद्धि लाने में सहायक है। यह मानव जीवन का आधार है, प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को ऊर्जावान, पाचन तंत्र को कार्यशील रखता है एवं शोधक के रूप में शरीर से विषाक्त पदार्थों को निकालता है। यह शरीर की कोशिकाओं, ऊतकों को पोषण प्रदान करता है, शरीर को स्वस्थ रखता है, त्वचा का  सौंदर्य इसी से है आयुर्वेद में जल का उपयोग विभिन्न प्राकृतिक उपचारों में किया जाता है, जैसे नस्य, अभ्यंग, तथा शिरोधारा, जो शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में मदद करते हैं।

वायुदेव तथा वरुणदेव के उपरान्त वेदों ने सूर्यदेव तथा चन्द्रदेव की भी महिमा को नाना मन्त्रों, श्लोकों, ऋचाओं, सूक्तों, स्तोत्रो इत्यादि से प्रस्तुत किया है। भविष्य में हम नवग्रहों पर चर्चा में इन्हें सम्मिलित करेंगे।

आधुनिक मानव ने सनातन धर्म में वर्णित पुरातन प्रणालियों तथा संस्कारों की अवहेलना द्वारा वायु तथा जल दोनों को अत्यधिक प्रदूषित कर अपने विनाश को स्वयं आमंत्रण दिया है।

 ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः





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