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सनातन धर्म का महत्व
सनातन
दर्शन के अनुसार, आत्मा 84 लाख योनियों के जन्म-मरण चक्र की पूर्णता के उपरान्त मानव रूप प्राप्त करती है। वेदों ने स्पष्ट रूप से मनुष्य को सृष्टि की सर्वोच्च रचना माना है व उसे पूर्णता के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है। आत्मा के जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना ही धर्म का एकमात्र उद्देश्य बताया गया है,
जिसे मोक्ष के रूप में जाना जाता है। इस प्रक्रिया में, आत्मा की पूर्णता एवं मोक्ष प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
भूलोक पर प्रत्येक जीव का जन्म लगभग एक समान प्रक्रिया से होता है। 84 लाख
योनियों में सर्वप्रथम जल तत्व के पृथ्वी तत्व से संयोजन से एक डिम्ब का निर्माण
होता है। जब इसमें वायु, अग्नि, और
आकाश तत्व प्रवेश करते हैं, तो यह भ्रूण बन जाता है।
वनस्पतियों में यह प्रक्रिया बीज के अंकुरण और जीवों में यह अंडे या माता के गर्भ
में होती है।
पूर्वजन्म के संचित पाप-पुण्य अर्थात जीव का प्रारब्ध यह निर्धारित करता है कि
वह किस योनि में कितनी अवधि तथा किस प्रकार के जीवन स्तर को प्राप्त करेगा। सरल
शब्दों में, आत्मा किस रूप में जन्म लेगी, उस रूप
में कितने समय तक रहेगी, एवं किस मात्रा में सुख-दुःख भोगेगी,
यह सब पूर्व निर्धारित होता है। परन्तु, केवल
मनुष्य योनि में चेतना के माध्यम से, प्रारब्ध से मुक्ति व आत्मोधार का मार्ग
प्राप्त होता
युग परिवर्तन से अप्रभावित रहने वाले सत्यज्ञान तथा उद्देश्यपूर्ण जीवन प्रणाली को 'सनातन'
तथा जीवन के कर्तव्य के पालन को 'धर्म' कहते हैं। वैदिक व्याख्या अनुसार, जिस कर्तव्य के पालन से आत्मिक उन्नति प्राप्त हो तथा अंत में ईश्वर से एकाकार हो,
वही अनादि, अनंत,
अनश्वर सनातन धर्म है।
प्रत्येक
मनुष्य जन्मकाल से सनातनी होता है तदुपरांत उसे किसी भी सम्प्रदाय पन्थ इत्यादि में उसको सम्मिलित कर दिया जाता है तथा आधुनिक समय में इन सम्प्रदाय इत्यादि को धर्म पुकारा जाने लगा है। यदि हम शिशु के जन्मोपरांत होने वाले वैदिक संस्कारों का अथवा म्लेच्छों के संस्कारों का विवेचन करें तो तुरंत ही सनातन धर्म का महत्व ज्ञात हो जाएगा।
हमारे
धर्मग्रन्थों के अनुसार, यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड चौदह भुवनों-भूलोक,भुव:लोक, स्वर्गलोक, महलोक,
जनलोक, तपलोक,
सत्यलोक तथा अतल, वितल,
सुतल, तलातल,
रसातल, महातम,
पाताल में विभाजित है। इनमें से सात लोकों को ऊर्ध्वलोक व सात को अधोलोक कहा गया है। मनुष्य, देव, दानव, प्रेत, नाग, किन्नर, गन्धर्व इत्यादि सभी प्राणी इनमे ही निवास करते हैं।
सम्पूर्ण
भूलोक पर भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां छह ऋतुएं सदैव विद्यमान रहती हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखला का सात्विक वातावरण साधकों को तपस्या हेतु प्रेरित करता है, जबकि उपजाऊ भूमि विभिन्न प्रकार के अन्न पैदा करती है। गंगा जैसी पवित्र नदियां शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण में सहायक होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति की सभी क्रियाएं भारत में धर्म की रक्षा के लिए तत्पर हैं परिणामस्वरूप, देवता भी यहां जन्म लेने की लालसा रखते हैं। भारतवर्ष वैदिक ज्ञान आधारित आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है जिससे सम्पूर्ण विश्व आलोकित है। पुराणों में भारत को पृथ्वी के मध्य में स्थित बताया तथा उज्जैन को काल की गणना का केंद्र माना गया है। अतः भारत को पृथ्वी का ह्रदय कहा गया है।
प्रारब्ध के निर्णय के
अनुसार जन्मस्थान की प्राप्ति होती है। जिन मनुष्यों का जन्म जम्बूद्वीप, आधुनिक
भारत में तथा सनातन धर्म में हुआ है, वे अत्यधिक सौभाग्यशाली
हैं। इसका कारण यह है कि वैदिक ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, यज्ञयोग, आश्रमधर्म,
वर्णधर्म आदि महान जीवन प्रणालियों का ज्ञान बाल्यपन से उन्हें सहज
रूप से प्राप्त होता है, जिससे आत्मा की पूर्णता का बोध एवं
मोक्षप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
इस अंश का सारांश इस प्रकार है: भारतवर्ष में सनातन धर्म में जन्म प्राप्त होना प्रारब्ध के पुण्यों का प्रतिफल है। परन्तु, वर्तमान में जो मनुष्य म्लेच्छ संप्रदायों उनकी पथभ्रष्ट भ्रामक पूजा विधियों इत्यादि से आकर्षित हो रहे हैं, उनको 84
लाख योनियों के जन्म-मरण चक्र को बार-बार भोगना पड़ेगा।
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