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मंगलवार, 28 जनवरी 2025

मृत्यु एवं पुनर्जन्म

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मृत्यु एवं पुनर्जन्म

अठारह पुराणों में से गरुड़ पुराण मानव की मृत्यु, कर्मों का फल तथा पुनर्जन्म विषयक ज्ञान प्रदान करता है। मनुष्य की दुष्कर्मों से रक्षा, चरित्र का निर्माण, नैतिकता का उत्थान, सात्विक जीवन तथा जगत कल्याण आधारित उत्तम समाज का निर्माण करना इसका प्रमुख उद्देश्य है।

 

मृत्यु प्रक्रिया: हमें ज्ञात है कि यह शरीर असंख्य कोशिकाओं से निर्मित है। जीवन कोशिकीय स्तर पर आरम्भ हुआ अतः मृत्यु प्रक्रिया भी इसी स्तर पर आरंभ होती है। कोशिकाओं का अग्नि तत्व वहां उपलब्ध वायु एवं जल तत्व से प्रतिक्रिया कर उनमें संचित ऊर्जा को मुक्त करता है। परिणामतः मरणासन्न व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर में अवर्णनीय पीड़ा व जवलनीय ताप की अनुभूति होती है। तदुपरांत शरीर के रक्त संचार व श्वसन, मांसपेशी, उत्सर्जन, प्रतिरक्षा प्रणाली एवं तंत्रिका तंत्र, लसीका व अंतःस्रावी तंत्र, तथा इनसे सम्बन्धित अंग निष्क्रिय हो जाते हैं। दृष्टि, स्वर, घ्राण, श्रवण व स्पर्श पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं। कार्यक्षमता समाप्त होने से शरीर शिथिल हो जाता है, वाणी कंठ में अवरुद्ध हो जाती है शरीर का तापमान घटने से पैर तथा हाथ शीतल हो जाते हैं अंततः शरीर निचेष्ट हो जाता है

 

जब भौतिक शरीर निष्क्रिय हो जाता है, तब सूक्ष्म शरीर सक्रिय हो उठता है, मन तथा चेतना की तीव्र गतिविधियाँ आरम्भ हो जाती हैं। व्यक्ति के शरीर के सातों चक्र, अपनी संचित ऊर्जा को मुक्त कर देते है।

व्यक्ति को स्वप्नावस्था का मानसिक अनुभव होता है। उसे अपने सम्पूर्ण जीवन का वृतांत चलचित्र की भांति दृष्टिगोचर होता है। तदुपरांत, व्यक्ति की संचित स्मृति, चेतना व प्राण उसके सूक्ष्म शरीर में स्थानांतरित हो जाते हैं। यह प्राणरुपी सूक्ष्म शरीर, अत्यंत गतिमान हो कर, स्थूल शरीर से पृथक होने का मार्ग ढूँढने लगती है। इस उर्जा के संचरण फलस्वरूप भौतिक शरीर क्षणिक अवधि हेतु कम्पायमान होकर एक बार अपनी अंतिम गतिविधि प्रदर्शित करता है। यही मृत्यु है ॐ ॐ ॐ

 

ग्रन्थों में सामान्य प्राणोत्सर्ग हेतु, एक मुख, दो नेत्र, दो नासिकाएं दो कर्ण तथा दोनों उत्सर्जन अंगों के कुल नौं छिद्र द्वार रूप में वर्णित हैं तथा प्राणरुपी सूक्ष्म शरीर मृतक के शुभ-अशुभ कर्मो तथा जीवनशैली के आधार पर इन्हीं में से किसी एक का चयन कर मृत देह को त्याग देता है।

परन्तु, सिद्ध, योगी, तपस्वी, महात्मा व मुक्त मानव इत्यादि का प्राणोत्सर्ग कपाल के शिखर पर स्थित दशम द्वार अर्थात ब्रह्मरन्ध्र से सम्पन्न होता है, क्योंकि उनका आध्यात्मिक चेतना एवं ब्रह्मांडीय ऊर्जा केंद्र सहस्रार चक्र:” जागृत तथा ईश्वर से एकीकृत होता है। इनकी मृत देह का अग्नि संस्कार नहीं होता।

 

शरीर से मुक्त हुए, सूक्ष्म शरीर को "प्रेत" कहा जाता है। यह चार तत्वों के संयोजन निर्मित एक अदृश्य ऊर्जावान पिंड होता है। प्रेत में मृतक की आत्मा, जीवन सम्पूर्ण स्मृतियाँ, कामनाएं, आकांक्षाएँ तथा चेतना संचित होती हैं एवं यह उनकी प्रेरणा से ही आचरण करता है। प्रेतात्मा अपनी गति हेतु ललायित रहता है।

प्रेतात्मा की तीन प्रकार की गति वर्णित की गयी है; सामान्य गति, सद्गति तथा दुर्गति। मुख्यतः सत्कर्मों से सद्गति, दुष्कर्मों से दुर्गति की प्राप्ति होती है। अतः मृतक के पुत्र सम्बन्धी, मृतात्मा की सद्गति एवं मुक्ति की कामना से विभिन्न क्रियाकर्म, गौदान, अन्नदान, पिंडदान तथा श्राद्ध इत्यादि संस्कार करते है। मृत्यु के तेरहवें दिवस स्पिंडी अनुष्ठान आयोजन से  मृतात्मा का भूलोक से सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथा वह अपने निमित्त समर्पित पिंड प्राप्ति के उपरान्त, यमलोक हेतु प्रस्थान करता है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः




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