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त्राटक
गत
चर्चा, शरीर के सातों चक्रों में उपलब्ध ऊर्जा भंडारों तथा उनके शोधन पर केंद्रित थी, जिस हेतु मानसिक एकाग्रता परमावश्यक है।
एकाग्रता प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम “त्राटक” नामक योग क्रिया की जाती है। यह दो प्रकार का होता है: बाह्य त्राटक तथा अंतःत्राटक।
त्राटक
किसी वस्तु को एकटक देखने की प्राचीन विधि है। हठयोग में इसे दिव्य साधना कहा गया
है। त्राटक के माध्यम से मन की एकाग्रता तथा वाणी के प्रभाव में वृद्धि होती है, जिससे साधक अपने संकल्प को
पूर्ण करने की शक्ति प्राप्त करता है। इससे संकल्प शक्ति में वृद्धि एवं मनवांछित कार्य
सिद्धि के योग बनते हैं। यह साधना मानसिक शांति व आध्यात्मिक प्रगति का एक
महत्वपूर्ण साधन है।
त्राटक
के सतत अभ्यास द्वारा अपने विचारों का संप्रेषण करना, अन्य व्यक्तियों के मनोभावों
का ज्ञान, सम्मोहन, अदृश्य
वस्तुओं को देखने कि शक्ति, दूरस्थ दृश्यों का ज्ञान तथा सूक्ष्म शरीर यात्रा
इत्यादि लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। इसके सतत अभ्यास से कुछ योगी अपनी
शारीरिक उर्जा को दृष्टि में केन्द्रित करके अग्नि तक उत्पन्न करने में सक्षम हो
जाते हैं। प्राचीन काल में त्राटक के प्रयोग द्वारा हमारे ऋषि मुनि अन्य लोकों में
घटित घटनाओं को प्रत्यक्ष रूप में देखने में समर्थ थे। रामायण में तपस्विनी
स्वयंप्रभा ने वानरों को माता सीता के लंका में होने की सूचना इसी साधना के
माध्यम से पुष्ट की थी। महाभारत काल में संजय ने इसी सिद्धि के प्रयोग से धृतराष्ट्र को
युद्ध का विवरण प्रदान किया था।
-विधि-
“बाह्य त्राटक
साधना” हेतु सर्वोत्तम समय अर्धरात्रि अथवा ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 3 से 5 बजे के बीच) है। इसका अभ्यास एक ही निश्चित समय पर, व्यवधान रहित, एकांत, शांत व लगभग प्रकाश हीन स्थान पर शुद्ध व स्वच्छ ढीले कपड़े पहनकर
भूमि पर किसी सुविधाजनक आसन पर बैठ लगभग 30 मिनट तक
प्रतिदिन करना चाहिए।
साधक, अपने
सम्मुख तीन फुट की दूरी पर मोमबत्ती या दीपक को अपनी आंखों या चेहरे की ऊंचाई पर
इस प्रकार रखें कि, उसे हवा न लगे तथा लौ स्थिर रहे। अब एकाग्र मन व स्थिर आंखों के साथ इस
ज्योति को बिना पलक झपकाए देखें, यह प्रक्रिया प्रतिदिन
तब तक करें जब तक सम्पूर्ण अवधि हेतु आपका ध्यान केवल लौ पर ही स्थिर रहने लगे
तथा लौ अतिरिक्त कुछ न दिखे। इस क्रिया के अभ्यास से नेत्रों तथा मस्तिष्क के तापमान में अत्यंत वृद्धि होती है: इसके उपरान्त, योगाभ्यास में वर्णित जल
नेति का प्रयोग अत्यावश्यक होता है। इस
क्रिया का अभ्यास योग्य
गुरु के मार्गदर्शन अनुसार करना चाहिए।
इस अभ्यास के माध्यम से मानसिक शक्तियों में अनवरत वृद्धि होने से साधक को
अनेक प्रकार के लौकिक तथा अलौकिक अनुभव प्राप्त होने लगते हैं। तन्त्र मार्ग का यह
मुख्य द्वार है इसके उस पार सिद्धियों का एक पृथक लोक है, सामान्यतः तांत्रिक इसी
लोक की मृगतृष्णा में पथभ्रष्ट हो, अपने प्रमुख उद्देश्य “आत्मोधार” से वंचित रह
जाते हैं।
तन्त्र से अतिरिक्त, इस प्रक्रिया का अभ्यास किसी
शांत स्थान पर अपने समक्ष, दीवार
पर एक सफेद कागज पर लगभग एक इंच व्यास का हरा रंग का बिंदु बनाकर अथवा दर्पण में
अपने नेत्रों के प्रतिबिंब पर दृष्टि केंद्रित करके भी की जा सकती है। नेत्रों में कष्ट होने पर इसका अभ्यास कभी नहीं किया जाता।
“अंतः त्राटक" में, साधक बंद नेत्रों के साथ दोनों भौंहों के बीच अपनी दृष्टि को “आज्ञा चक्र” पर स्थिर करते हुए एकाग्रता का अभ्यास करता है। इसका अभ्यस्त हो जाने पर साधक अपने सूक्ष्म शरीर को भौतिक शरीर से मुक्त करने में पारंगत हो जाता है। वह अब मन की गति से पूरे ब्रह्मांड के किसी भी स्थान की यात्रा करने में समर्थ हो जाता है। इसके साधक आपस में मानसिक तरंगों के आदान-प्रदान से संवाद करने में सक्षम हो जाते हैं। परन्तु इसका एक भयावह रूप भी है, यदि इस साधना के मध्य साधक का ध्यान एकाएक भंग हो जाए तो उसका सूक्ष्म शरीर उसके भौतिक शरीर में प्रवेश करने में असमर्थ हो जाएगा तथा भौतिक शरीर जीवित शव (कोमा) की स्थिति में पहुंच जाएगा।
विपश्यना विधि के अंतर्गत त्राटक को प्राणायाम से सम्बद्ध करके अभ्यास किया
जाता है।
वाममार्गी साधक श्मशान में चिताओं के मध्य इसका अभ्यास करके ईश्वर से सम्बन्ध
स्थापित करते हैं। प्रत्येक साधना
में त्राटक का किसी न किसी प्रकार से प्रयोग अवश्य ही किया जाता है। बाह्य त्राटक हो अथवा अंतःत्राटक दोनों विधियों के
माध्यम से ध्यान एवं एकाग्रता
को बढ़ाया जाता है। यह साधना न केवल मानसिक शांति प्राप्त करने में सहायक होती है अपितु, साधक की आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग को भी
प्रशस्त करती है।
(विशेष: उपरोक्त विवरण केवल विषय के परिचय हेतु प्रदान किया गया है तथा इसमें कुछ
बातें गुप्त रखी गयी हैं अतः यह अपूर्ण विधि है। कृपया केवल पढ़ कर इसके प्रयोग का प्रयास
कदापि न करें)
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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