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चक्र बंधन ग्रन्थियां
अब तक हमें ज्ञात हुआ कि, मानव शरीर में
चक्र नामक सात ऊर्जा केंद्र होते हैं, इसके अतिरिक्त, गाँठ रुपी तीन महत्वपूर्ण ऊर्जा बिंदु—ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि और रुद्र ग्रंथि भी होती हैं। ये ग्रंथियां एक प्रकार के ताले
हैं, जो चक्रों की ऊर्जा प्रवाह को बाधित करती हैं। ये तीनों
ग्रन्थियां न केवल हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित
करती हैं, अपितु, हमारे मानसिक
और आध्यात्मिक उन्नति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन ग्रंथियों को
सक्रिय करना अति आवश्यक है, जिससे हमारी संतुलित, सकारात्मक और आध्यात्मिक प्रगति हो सके। इन ग्रंथियों को खोलने और सक्रिय
करने के लिए योग, ध्यान, प्राणायाम,
और तंत्र साधना आदि विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है। इन
विधियों के माध्यम से हम अपनी ऊर्जा को जाग्रत कर सकते हैं और आत्मिक शांति
प्राप्त कर सकते हैं।
ब्रह्मा ग्रंथि यह ग्रंथि
मूलाधार चक्र के पास स्थित होती है। ब्रह्मा ग्रंथि का संबंध हमारी प्रारंभिक जीवन
ऊर्जा स्रोत से है, जो हमें भौतिक और मानसिक स्थिरता प्रदान
करता है। ब्रह्मा ग्रंथि की सक्रियता से व्यक्ति में जीवन शक्ति का संचार होता है।
ब्रह्मा ग्रंथि हमें भोजन, आश्रय, संतानोत्पत्ति
और कामुक सुख जैसी बुनियादी ज़रूरतों और अन्य भौतिक स्वार्थों से जोड़े रखती है।
हठ योग में, इस गाँठ को खोलने के लिए मूलबंध और प्राणायाम का
अभ्यास किया जाता है। इस ग्रंथि के खुलते ही व्यक्ति को सहज प्रवृत्ति, भय और स्वार्थ से मुक्ति महसूस होती है।
विष्णु ग्रंथि यह ग्रंथि
अनाहत चक्र के पास स्थित होती है। विष्णु ग्रंथि का संबंध हमारी भावनाओं और मानसिक
संतुलन से होता है। यह हमारे प्रेम, करुणा, मानसिक
क्षमता और सहानुभूति के केंद्र के रूप में कार्य करती है। हठ योग में, विष्णु ग्रंथि को खोलने के लिए उड्डियान बंध का उपयोग किया जाता है। यह
प्राण, अपान और समान वायु को एक साथ जोड़ता है। यही कुंडलिनी
ऊर्जा को चेतना के अगले स्तर और अनाहत चक्र में जाने की अनुमति देता है।
रुद्र ग्रंथि यह ग्रंथि
आज्ञा चक्र के पास स्थित होती है। रुद्र ग्रंथि का संबंध हमारी आध्यात्मिक
जागरूकता, बुद्धि, शुद्धता, संतुलन,
सद्भाव, रचनात्मकता और सकारात्मकता से होता
है। यह ग्रंथि हमारे आंतरिक दृष्टिकोण और आत्मज्ञान के केंद्र के रूप में कार्य
करती है। यह हमारी सूक्ष्म दृष्टि और उच्चतम चेतना को जागृत करने में मदद करती है।
रुद्र की गाँठ एक योगी के लिए अंतिम बाधा है जो उसे सर्वोच्चता से जुड़ने से रोकती है।
रुद्र ग्रंथि की सक्रियता से व्यक्ति में आत्मज्ञान और आध्यात्मिक जागरूकता बढ़ती
है। वास्तविकता के गहन सत्य का ज्ञान प्रदान कर, आत्म-साक्षात्कार की दिशा में
अग्रसर करती है।
ग्रंथि बंधन को खोलने की विधियां
मूलबंध: प्राणायाम
करते समय गुदा को सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचे रखना मूल-बंध कहलाता है। इस प्रयोग से
‘अपान’ स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रभाव रुककर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति
से ऊर्ध्वगति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूल-बंध से चैतन्यता उत्पन्न
होती है। यह प्रयोग मन इस भावना से करना चाहिये कि अब कामोत्तेजन का केन्द्र अपने मार्ग
से खिसक कर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंगते हुए मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित
सहस्रार चक्र तक यात्रा कर रहा है। क्योंकि, यह क्रिया
कामुकता पर नियन्त्रण करके कुण्डलिनी उत्थान में सहायक होती है।
प्राणायाम: ‘प्राणायाम’ शब्द संस्कृत भाषा के दो शब्दों, “प्राण”
तथा “आयाम” से मिल कर बना है जिनका क्रमश: अर्थ है “श्वास” एवं “विस्तार”।
योगिक श्वसन क्रिया के अभ्यास से हम अपनी जीवनी ऊर्जा, अर्थात्
प्राण को नियंत्रित कर सकते हैं। प्राणायाम गहराई से श्वास लेने की क्रिया है तथा हजारों
वर्षों से भारतीय योग परंपराओं के रूप में विद्यमान है। इसमें श्वसन प्रक्रिया को विभिन्न
ऊँचाइयों, आवृतियों तथा अवधियों हेतु विनियमित किया जाता है।
इस का उद्देश्य प्राणायाम के अभ्यास से शरीर तथा मन को संयुक्त करना होता है
उड्डियान
बंध: पेट में स्थित आँतों को पीठ की ओर खींचने की क्रिया को
उड्डियान बंध कहते हैं। पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके उतना खींचकर उसे पीछे
की ओर पीठ में चिपका देने का प्रयत्न इस बंध में किया जाता है। इसे मृत्यु पर विजय
प्राप्त करने वाला कहा गया है। इसके अभ्यास से सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है और
स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जागृत होने योग्य हो जाता
है। जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु जीवन का लाभ उड्डियान बंध से मिलता है।
जालंधर बंध:
मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ-कूप ( कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर गड्डा हैं) में
लगाने की क्रिया को जालंधर-बंध कहते हैं। इसका अभ्यास योग साधकों द्वारा श्वास
नियन्त्रण हेतु प्रयोग किया जाता है। इससे ज्ञान-तन्तु बलवान होते हैं। यह प्राण
शक्ति को ऊपर की ओर जाने से रोकता है। जालंधर बंध का अभ्यास करने से योगी
वृधावस्था जनित शारीरिक परिवर्तनों को नियंत्रित कर युवा रह सकता है।
खेचरी मुद्रा: योग साधना की
एक मुद्रा है। इस मुद्रा की
साधना के लिए पद्मासन में बैठकर अंतः त्राटक द्वारा मानसिक दृष्टि को दोनों भौहों के बीच स्थिर करके फिर जिह्वा को उलटकर तालु से सटाते हुए पीछे रंध्र में डालने का प्रयास किया जाता है। इस क्रिया में
चित्त और जिव्हा दोनों ही 'आकाश' में
स्थित रहते हैं, अत: इसे 'खेचरी'
मुद्रा कहते हैं । इसकी साधना द्वारा मनुष्य को किसी प्रकार का रोग नहीं होता । इसके सतत
अभ्यास से आज्ञा चक्र में चेतना की जागृति होती है तथा शरीर में सुप्त कुंडलिनी
सहित सम्पूर्ण शक्तियाँ जाग्रत हो कर मनुष्य को सम्पूर्ण ब्रह्मांड के सूक्ष्म व गोपनीय
रहस्यों को प्रकट कर देती हैं जिससे सांसारिक माया से वैराग्य उत्पन्न होता है तथा
आत्मिक उद्धार तथा मोक्ष के द्वार प्रशस्त हो जाते हैं।
इस प्रकार से योगाभ्यास द्वारा मानव शरीर में विद्यमान सातों चक्रों में
संग्रहीत परन्तु सुप्त शक्तियों के अपार भंडार को ग्रन्थि बंधन से मुक्त करके तथा
जागृत करके इसमें व्याप्त सूक्ष्म शरीर तथा उसमें व्याप्त चेतना का विकास करते हुए
आत्मा का परमात्मा से साक्षात्कार सम्भव किया जाता है । आत्मोधार का यह एक सरल
मार्ग है ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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