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शरीर के सात चक्र
परम शक्ति परमात्मा ने हमें यह मानव शरीर एक साधन के रूप में प्रदान किया है जिसका उचित प्रयोग करके हम अपनी आत्मा का उद्धार कर सकते हैं। पुरातन ऋषियों ने मानव शरीर में सात चक्रों की अवधारणा की व्याख्या की है एवं उन विधियों का विस्तृत विवरण किया है, जिनसे आत्मिक शांति व मोक्ष की प्राप्ति संभव है। ये सात चक्र—मूलाधार, स्वाधिष्ठान,
मणिपूर, अनाहत,
विशुद्ध, आज्ञा तथा सहस्रार—हमारे शरीर के भीतर
संचित ऊर्जा के केंद्र हैं।
अब हम इन चक्रों के विषय में संक्षिप्त विचार करेंगे। ये सातों चक्र हमारे मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) के केंद्र में स्थित मेरु रज्जू (स्पाइनल कॉर्ड)
मूल से आरम्भ होकर कपाल केंद्र तक बढ़ते क्रम में स्थित हैं। इन चक्रों का मुख्य कार्य शरीर की ऊर्जा को सक्रिय एवं संतुलित करना है। प्रत्येक चक्र
मानव शरीर में एक विशेष आवृत्ति की विद्युतीय ऊर्जा को प्रवाहित करता है, जो विभिन्न ग्रंथियों के रासायनिक स्राव
(हार्मोन्स) से उत्पन्न होती है। प्रत्येक चक्र का संबंध हमारे आध्यात्मिक, मानसिक, संज्ञानात्मक एवं तंत्रिका तंत्र से होता है। इनमें से एक या अधिक चक्रों के सुप्त या जाग्रत होने के प्रभावस्वरूप हमारा शारीरिक, नैतिक
तथा आध्यात्मिक, उत्थान अथवा पतन होता है।
1. मूलाधार चक्र: यह
तंत्र एवं
योग साधना आधारित चक्र संकल्पना का प्रथम चक्र है, आधारभूत
ऊर्जा का यह केंद्र मेरुदंड के आधार में
स्थित है। पाशविक अथवा मानवीय चेतना की सीमा का निर्धारण यही चक्र करता है। कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र सत्कर्म अथवा दुष्कर्म
के अनुसार प्राणी के
भविष्य को निर्धारित करता है। इसका रंग लाल होता है एवं इस चक्र की नियन्त्रा
शक्ति देवी महाकाली हैं। योगाभ्यास में सेतुबंध
आसन, पर्वतासन, कोणासन, वीरासन, पाद-हस्तासन का अभ्यास इसके संतुलन हेतु किया जाता है।
2. स्वाधिष्ठान
चक्र: यह
सृजनात्मकता तथा प्रजनन शक्ति का केंद्र है। यह चक्र त्रिकास्थि (पेट
के पिछले भाग की पसली) के निचले छोर में स्थित होता
है। चेतना का उत्थान व शुद्धिकरण इसमें ही आरंभ होता
है। यह अचेतन मन का वह स्थल
है जहां हमारे सम्पूर्ण जीवन का अनुभव एवं छवियाँ अपनी भावी सन्तान को अंतरण हेतु संकलित होती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र
की जाग्रति स्पष्टता
तथा व्यक्तित्व में विकास लाती है। इसका रंग नारंगी होता है। पादोत्तानासन तथा
बद्ध व उपविष्ट कोणासन द्वारा इसे संतुलित किया जाता है।
3. मणिपूर चक्र: यह इच्छाशक्ति तथा आत्मविश्वास का केंद्र है यह नाभि के
पीछे स्थित होता है। इसका आधार तत्व अग्नि होने के कारण इसे 'अग्नि'
या 'सूर्य केन्द्र' भी
कहते हैं। इससे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, ज्ञान,
बुद्धि एवं उचित निर्णय लेने की योग्यता जैसे बहुमूल्य मणियों सरीखे
गुण प्राप्त होते हैं। यह
ब्रह्माण्ड स्थित प्राण ऊर्जा को अपनी ओर आकर्षित करता है। इसका रंग पीला होता है। योगाभ्यास के अंतर्गत सूर्य नमस्कार, धनुरासन तथा नौकासन इसके संतुलन हेतु लाभदायक होते हैं।
4. अनाहत चक्र: अनाहत का अर्थ है शाश्वत। यह प्रेम तथा करुणा का केंद्र है,
यह हृदय के समीप सीने के मध्य भाग में स्थित है। इस चक्र से संकल्प शक्ति का उदय होता है जो इच्छापूर्ति करने में सहायक होती है। जब
अनाहत चक्र की ऊर्जा आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रवाहित होती है, तब हमारी भावनाएं, ईश्वर,
भक्ति, शुद्ध निष्ठा की ओर उन्मुख होती है। इसका रंग हरा
होता है। विभिन्न प्रकार के प्राणायाम, मत्स्यासन उष्ट्रासन,
एवं भुजंगासन से इसे संतुलित किया जाता है।
5. विशुद्ध
चक्र: इस चक्र
में हमारी चेतना पांचवें स्तर पर पहुंच जाती है। यह संचार तथा अभिव्यक्ति का
केंद्र है यह कण्ठ के पीछे स्थित होता है। यह चक्र उच्चतम आध्यात्मिक अनुभूति देता है एवं
इसी में सम्पूर्ण सिद्धियों का वास होता है। इसके
देवता ब्रह्मा है, जो चेतना के प्रतीक है। ध्यान में जब
व्यक्ति की चेतना आकाश तत्व में समाहित हो जाती है, तब
ज्ञान व बुद्धि प्राप्त होती है। इसका रंग आकाशीय नीला है। इसके संतुलन
हेतु कंठ तथा ग्रीवा सम्बंधित आसन प्रयोग होते हैं।
6. आज्ञा
चक्र: यह
अंतर्दृष्टि तथा बुद्धि का केंद्र है जो मानव और दैवी चेतना के मध्य सीमा
निर्धारित करता है। यह तीन प्रमुख नाडिय़ों,
इडा (चंद्र नाड़ी) पिंगला (सूर्य नाड़ी) और सुषुम्ना (केन्द्रीय,
मध्य नाड़ी) के मिलने का स्थान है। जब इन तीनों नाडिय़ों की
ऊर्जा यहां मिलती है तथा विकसित होती है, जिससे समाधि,
सर्वोच्च चेतना प्राप्त होती है। इस चक्र के गुण हैं - एकता,
शून्य, सत, चित्त
व आनंद। जब यह 'ज्ञान नेत्र'
खुलता है तब हम आत्मा की वास्तविकता देखते हैं – अत: इसे 'तीसरा नेत्र' भी कहा गया है। आज्ञा चक्र 'आंतरिक गुरू' का निवास स्थान है। इसका रंग गहरा
नीला होता है। त्राटक विधियों के प्रयोग से यह संतुलित तथा जाग्रत होता
है।
7. सहस्रार चक्र: यह आध्यात्मिक चेतना तथा ब्रह्मांडीय ऊर्जा का केंद्र, कपाल
के शिखर, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित है।
यह चक्र मानव जीवन के प्रमुख उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है - आत्म
अनुभूति एवं ईश्वर की अनुभूति, इसकी जागृति से आत्मा का परमात्मा से
एकाकार हो जाता है। जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी
कर्मों से मुक्त हो जाता है, मोक्ष प्राप्त करता है। ध्यानस्थ योगी सहस्रार चक्र
में ही निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) पर पहुंचता है, यहां मन पूर्णतः निश्चल हो जाता है, ज्ञान, ज्ञाता एवं
ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं। इसका रंग बैंगनी होता है। योगाभ्यास में वर्णित हस्त मुद्राओं के ध्यान
में संयोजन से एकाग्रता की पराकाष्ठा इसकी जागृति संभव करती है।
चक्रों की
ऊर्जा का संतुलन व जागृति एक समग्र दृष्टिकोण है जो शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति को भी प्रोत्साहित करता है। इसके अतिरिक्त तन्त्र साधना एवं अन्य विधियों से भी इन सातों चक्रों को जागृत किया जा सकता है भविष्य में उचित समय आने पर हम इस पर भी चर्चा करेंगे।
परमात्मा ने शरीर की ऊर्जा को अत्यंत गुप्त रूप से इन सातों चक्रों
में संरक्षित किया तथा उन्हें ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि की साहायता से कीलित किया हुआ है। सामान्य मानव, अपने ही शरीर में उपलब्ध इन अपार शक्तियों से अनभिज्ञ जन्म-भोग--मृत्यु के मायाजाल में वेष्टित रहता है तथा उसे चौरासी लाख योनियों को भोगना पड़ता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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