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ध्यान व
समाधि
त्राटक पर विचार करते समय हमे यह ज्ञात हुआ कि इस विधि की सफलता का मूल “ध्यान” है। महर्षि पतंजलि ने विभिन्न योगसूत्रों
का एक संकलन किया जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग
योग (आठ अंगों वाले योग) का मार्ग विस्तार से बताया
है। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) मानव के भौतिक शरीर तथा (धारणा, ध्यान, समाधि) मानव के मन व चेतना से सम्बन्धित हैं।
धारणा का अर्थ है अपने लक्ष्य का निर्धारण, ध्यान के माध्यम से मानसिक एकाग्रता एवं स्थिरता प्राप्त
करना। अपनी मानसिक तरंगों को एक
विचार पर केन्द्रित करने को “धारणा” कहा
जाता है। लक्ष्यहीन होने से कोई लाभ नहीं होता। उदाहरणार्थ, जब व्यक्ति
अपनी श्वास के आवागमन पर ध्यान केंद्रित करता है तब यह श्वास-धारणा की योगविधि
प्राणायाम कहलाती है जिससे शरीर को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं जबकि हम प्रतिदिन अनभिज्ञ रूप से यही श्वसन क्रिया
सामान्य रूप से बिना किसी विशेष लाभ के करते रहते हैं।
धारणा का अभ्यास मानसिक एकाग्रता की वृद्धि कर मनुष्य को “ध्यान” की
अवस्था में ले जाता है। अर्थात अब एकाग्रता चित्त को शांत स्थिति में स्थिर करने
लगती है। चेतनात्मक ऊर्जा का केन्द्रण ही “ध्यान” है। उदाहरणार्थ, जब साधक अपनी चेतना को "ॐ" पर केंद्रित करता है
तो मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। पूर्ण ध्यान की अवस्था में साधक बाहरी वातावरण तथा स्वयं विस्मृत कर देता है। ऋषि-मुनि ध्यान से ही इस सृष्टि के स्वरूप एवं इसके गूढ़ एवं गुप्त रहस्यों को जान पाए।
आधुनिक विज्ञान भी यह मानता है कि इससे मस्तिष्क की कार्य
क्षमता बढ़ती है। विभिन्न सन्दर्भों में 'ध्यान' के पृथक अर्थ
हैं। योग सम्मत ध्यान व सामान्य ध्यान में बड़ा अंतर है। यौगिक ध्यान के दीर्घकालिक
अभ्यास से प्राप्त होने वाली शक्ति के माध्यम द्वारा साधक की आध्यात्मिक शक्ति
सुदृढ़ होती है, जबकि सामान्य ध्यान का प्रयोग मनुष्य देखना, विचार करना तथा अन्य दैनिक गतिविधियों में करता है।
आध्यामिक ध्यान प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों को एक कछुवे की भांति
मन के भीतर समेट लेता है तथा अपनी विचार शक्ति की
उर्जा को केवल एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित कर देता है। जिस प्रकार त्राटक में दृष्टि को एक वस्तु पर केन्द्रित किया जाता है तथा अंतः त्राटक में आज्ञा चक्र पर, ध्यान के अंतर्गत साधक के विचारों का केंद्र ईश्वर का साकार
मूर्त रूप अथवा निराकार ब्रह्म होता है।
आध्यात्मिक ध्यान पूर्ण रूपेण मानसिक होने के कारण काल एवं समय की सभी सीमाओं से मुक्त निर्बाध स्थिति है। अतः ध्यानस्थ व्यक्ति अपनी चेतना तथा मानसिक उर्जा का मनवांछित मात्रा में किस
भी लक्ष्य की ओर प्रयोग कर सकता है। मानसिक ध्यान से गूढ़तम ज्ञान स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। जब मनुष्य शत प्रतिशत ध्यानस्थ हो जाता है तो इसी अवस्था को “समाधि” की संज्ञा दी गयी है।
“समाधि” चित्त की वह अवस्था है जिसमें चित्त तथा उसका उद्देश्य एकाकार हो जाते हैं इनका आदि मध्य एवं अंत नहीं रहता। इसमें शरीर की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का भी महत्व शेष नहीं रहता
अर्थात भौतिक शरीर की सामान्य गतिविधियाँ भी इस प्रकार परिवर्तित हो जाती हैं कि, शरीर अपनी आवश्यकता हेतु
उर्जा स्वयं ही उत्पन्न करने लगता है तथा साधक ध्येय के चिंतन में सम्पूर्णत:
लीन हो जाता है। इसी कारण से हमारे ऋषि मुनि हजारों वर्ष तक बिना अन्न-जल- श्वास की आवश्यकता के,
समाधिस्थ अवस्था में ध्यान में लीन रह सकते थे। सनातन दर्शन के अनुसार समाधि
से मोक्ष संभव होता है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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