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भक्ति
अब तक हमें ज्ञात हुआ कि, हमारे धर्म ग्रंथों में ईश्वरीय चेतना तक पहुँचने के विभिन्न साधनों; ज्ञान योग, कर्म योग तथा भक्ति योग का वर्णन है। इनके अनुसरण हेतु मनुष्य को गहन प्रयास की आवश्यकता होती है, जिसमें इन्द्रियों का नियंत्रण, शारीरिक एवं मानसिक अनुशासन, सतत अभ्यास, एकाग्रता, संयम,
तथा त्याग का महत्व होता है। इसके अतिरिक्त, संकल्प शक्ति का होना भी अत्यंत आवश्यक है। यह यात्रा कठिन और चुनौतीपूर्ण हो सकती है, परन्तु, इसके परिणामस्वरूप आत्मिक शांति व मोक्ष की प्राप्ति अवश्य संभव है।
“भक्ति” का अर्थ, अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण है। नारद भक्ति सूत्र में भक्ति को परम प्रेम रूप और अमृत स्वरूप कहा गया है। निष्काम भक्ति से मनुष्य कृतकृत्य,
संतृप्त तथा मुक्त हो जाता है। महर्षि वेदव्यास जी ने भी ईश्वर के प्रति अनुराग को भक्ति कहा है। महर्षि गर्ग के अनुसार देव लीलाओं की कथा के श्रवण में सम्पूर्ण अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही द्रष्टिगोचर होता है।
श्रीमद भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा “हे अर्जुन, मुझ में रमण कर,
मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर,
ऐसा करने से मुझे ही प्राप्त होगा” भक्ति की भावना का जन्म
व्यक्ति की लौकिक कामनाओं की पूर्ति के माध्यम से होता है, जब सांसारिक सुखों की
प्राप्ति हेतु सर्वप्रथम वह ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत होता है तथा उनके रूप, गुण, इत्यादि को अपने हृदय में धारण कर लेता है तथा उसका मन इनमें रमने लगता
है तब इसे सकाम भक्ति कहते हैं। परन्तु, जब मनुष्य की एक मात्र कामना केवल आराध्य का सामीप्य प्राप्ति हो तब
यह निष्काम भक्ति कहलाती है। वस्तुतः सकाम भक्ति का अगला स्तर ही निष्काम भक्ति है।
सतत प्रयासों, प्रारब्ध व भाग्य से, कुछ भक्त, समर्पण का अगला स्तर, वैराग्य
को भी प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। भक्त की मानसिक एकाग्रता, चेतना का वह स्तर,
जहाँ सम्पूर्ण पंच-विकारों के प्रभाव की समाप्ति हो जाए, सारे भौतिक सम्बन्धों के मोह का नाश हो जाए इस स्थिति को “वैराग्य” कहते हैं। भक्ति की उच्चतम अवस्था वह है जिसमें शरीर की मूलभूत
आवश्यकताओं
की पूर्ति का भी महत्व
समाप्त हो जाए, केवल भक्त तथा आराध्य का प्रेम शेष रहे, दोनों एकाकार हों तदुपरांत
केवल आत्मा की मुक्ति ही होगी, लो “आत्मोधार” हो गया। विचार करने से ज्ञात होगा यह समाधि की वही अंतिम अवस्था की प्राप्ति है जिस पर हमने गतांक में चर्चा की थी। निष्कर्ष यह कि, भक्ति से
शरीर के
सातों चक्र
एवं तीनों
ग्रन्थियां सहज
ही सक्रिय व जाग्रत हो
उठती हैं,
जिसके फलस्वरूप
भक्त का ब्रह्मांड में
विद्यमान ईश्वरीय
चेतना से एकाकार हो
जाता है।
देवों के
रूप का
दर्शन, उनकी स्तुति गायन, उनके साहचर्य
की उत्सुकता, उनके प्रति
समर्पण में
परम आनन्द
का अनुभव
यह भक्ति
के घटक
तत्व हैं। भक्ति की उत्कृष्टता
के अनेकों
उदाहरण हमारे
समक्ष उपलब्ध
हैं, जैसे महऋषि नारद, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि विश्वामित्र, तथा रावण तो वर्तमान युग में मीरा,
नरसी भक्त,
नामदेव, रविदास, सूरदास, श्री रामकृष्ण परमहंस, तथा ध्यानु भक्त
आदि। इतिहास
साक्षी है
कि, इन परम
भक्तों ने
ईश्वर के
प्रति अपने
संपूर्ण समर्पण
द्वारा आत्मोधार
अथवा मोक्ष
प्राप्त किया।
इनकी भक्ति ने मानव समाज को प्रत्येक युग तथा काल में आध्यात्मिक जागरूकता तथा सत्कर्मों की प्रेरणा प्रदान की।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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