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तंत्र शास्त्र
धार्मिक ग्रन्थों में आत्मोधर की वैदिक प्रणाली के ज्ञान को “निगम” तथा तांत्रिक ज्ञान को “आगम” कहा गया है। जब, देवाधिदेव महादेव शिव ने आदिशक्ति के सम्पूर्ण स्वरूप तथा गुप्त भेदों का ज्ञान उपदेशों के माध्यम से माता पार्वती को प्रदान किया तब तन्त्रशास्त्र का प्रकाट्य हुआ। यह दैवी ज्ञान आदि पुरुष ने प्रकट किया अत: “आगम’’ कहलाया तथा इसके तीन प्रकार है: वैष्णव आगम, शैव आगम तथा शाक्त आगम। सामान्यत: तंत्रशास्त्र को अत्यधिक भयावह एवं वीभत्स विधि के रूप में प्रचारित किया गया है। परन्तु यथार्थ में, यह भी ईश्वर की प्राप्ति का एक मार्ग है। तंत्रशास्त्र के माध्यम से साधक अपनी मानसिक एकाग्रता और आत्मिक उन्नति का विकास करता है व उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
महानिर्वाण तंत्र के
अनुसार, कलियुग में मानव
पवित्र- अपवित्र
में भेद
करने में
असमर्थ होंगे, तथा अज्ञानवश अपूर्ण
विधि विधानों
एवं दूषित
सामग्री के कारण “निगम” वर्णित
वैदिक मंत्रों, जपों तथा यज्ञों का
फल प्राप्त
करना सरल
नहीं होगा।
अत: महादेव
ने जन
कल्याणार्थ माता
पार्वती को
स्वयं आगमों
का उपदेश
दिया। इसमें
कोई संशय
नहीं है
कि, वर्तमान
समय में इच्छित फलों
की प्राप्ति
हेतु तंत्र शास्त्र में
वर्णित मंत्रों
इत्यादि से
सहायता मिलती
है। तन्त्र
की दृष्टि
में शरीर
प्रधान साधन है। उसके बिना
चेतना के
उच्च शिखरों
तक पहुँचा
ही नहीं
जा सकता।
इसी कारण
से तन्त्र
का तात्पर्य
‘तन’ के माध्यम
से आत्मा का ’त्राण’ अर्थात उद्धार
है।
क्योंकि, तंत्र शास्त्र के
सिद्धांत अत्यंत गुप्त
होते हैं अत:
समर्थ गुरु केवल योग्य शिष्यों
दीक्षा उपरान्त ही
यह ज्ञान प्रदान
करते हैं। तंत्र
शास्त्र वह प्रणाली है जो
साधक को शरीर
में संचित ऊर्जा
प्रवाह को नियंत्रित
करने की विधियों
का ज्ञान करवाती
है जिससे, वह
इस उर्जा का
मनवांछित प्रयोग कर
सकता है। सामान्यतः: इसमें छ
क्रियाओं का प्रयोग
किया जाता है:-
शान्तिः करण , वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण।
एक साधक जब इस
यात्रा के विभिन्न
स्तरों को पार
करता है, तो उसे
पग-पग पर
अनेक प्रकार के
अलौकिक अनुभव और
शक्तियों की प्राप्ति
होती है। अधिकतर
तांत्रिक इस सफलता
से मोहित होकर
अपने लक्ष्य से
भटक जाते हैं
और सिद्धियों के
मायाजाल में फंस
जाते हैं। वस्तुतः, ये
तांत्रिक चार और
तीन तत्व के
जीवों से संबंध
स्थापित करके, उनकी सहायता से
कुछ सीमित स्तर
की मनवांछित लौकिक
इच्छाओं की पूर्ति
करने की क्षमता
प्राप्त कर लेते
हैं। लेकिन जब
उनकी जीवन यात्रा
समाप्त होती है, तो
अपनी अतृप्त वासनाओं
और शक्तियों के
दुरुपयोग के परिणामस्वरूप, वे प्रेत
योनि को प्राप्त
करते हैं। परन्तु
जो साधक इस
यात्रा के समस्त
स्तरों को सफलतापूर्वक
पार कर लेता
है, उसका
ईश्वर से एकाकार
हो जाता है
तथा वह मोक्ष
को प्राप्त कर
लेता है।
संक्षेप में हमने जाना
कि, चाहे
किसी विधि अथवा
मार्ग का प्रयोग
किया जाए, मानव
को अंततः मुक्ति
अथवा मोक्ष हेतु
ही प्रयत्नशील रहना
है। परन्तु यह अकाट्य
सत्य है कि, हमारा जन्म मायाजाल
में होता है
जिसकी आवश्यकता भी
है अन्यथा यह
सृष्टि का चक्र
थम जाएगा। श्री
कृष्ण भगवान ने
गीता में यह
उपदेश दिया मनुष्य
को वे कार्य
करने अत्यावश्यक हैं
जिनसे इस सृष्टि
का चक्र गतिमान
रहे तथा आध्यात्मिक
लक्ष्य के प्रति
भी सचेत भी
रहना है। अतः
कामनाओं से रहित
अथवा निर्लिप्त भाव
से निष्पादित कर्म
को ही सर्वोत्तम
बताया गया।
इसका उदाहरण एक तितली
है। जो अपने
जीवन निर्वाह हेतु
जब किसी पुष्प
से रस प्राप्त
करती है तब
वह उपलब्ध रस
के भंडार में
से केवल एक
अंश का ही
प्रयोग करती है
तदुपरांत अन्यत्र अन्य
पुष्प से भी
अल्प मात्रा लेती
है यद्यपि,
उसकी क्षुधा को
शांत करने हेतु
एक पुष्प का
सम्पूर्ण रस भंडार
पर्याप्त, था परन्तु
वह अपनी यात्रा
जारी रखते हुए
अपना कर्म करती
रहती है।
अतः मानव को
भी पंच विकारों —काम, क्रोध, मद, लोभ
एवं मोह से यथा सम्भव अप्रभावित रहते
हुए, निर्लिप्त
भाव से कर्मों
द्वारा अपने कर्तव्यों
के पालन में
रत रहना चाहिए।
यही श्रीमद भागवत गीता
में वर्णित आत्मोधार
का कर्मयोग मार्ग
है।
ॐ शान्तिः
शान्तिः शान्तिः
Great.
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