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तत्व जनित जीवन के विभिन्न आयाम
गत में, हमने
मानव चेतना के आत्मिक सम्बन्ध पर संक्षिप्त विचार किया गया था। पौराणिक अवधारणा के
अनुसार, मानव शरीर पांच प्रमुख तत्वों - भूमि, जल,
वायु, अग्नि तथा आकाश - से बना है। प्रत्येक मनुष्य
इस शरीर का उपयोग अपनी आवश्यकता, स्वभाव, विवेक, ज्ञान एवं चेतना के अनुसार करता है। वह काम,
क्रोध, मद, लोभ तथा मोह
से प्रभावित होकर अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले नाना प्रकार के फलों को भोगता है, जिससे
वह चाशनी में लिपटी मक्खी की भाँति 84 लाख योनियों के
जन्म-मरण चक्र में उलझ जाता है।
अब हम जीवन के विभिन्न
आयामों की विवेचना करेंगे। जब मृतक शरीर का अग्नि अथवा भूमि संस्कार कर दिया जाता
है तब उससे मुक्त हुए केवल चार तत्वों का अस्तित्व शेष रहता है, इसे
सूक्ष्म शरीर अथवा प्रेत इत्यादि उपमा प्रदान की गयी है यह दृष्टिगोचर नहीं होता। यह
जीवन की अशरीरी अवस्था है जो अपनी चेतना, अनुभव, भय, शोक, सुख, दुःख, संकल्प विकल्प इत्यादि से बंधी हुई है। इसकी
भी एक अवधि है तत्पश्चात प्रेत की मुक्ति हो जाती है। परन्तु जिन प्रेतों की किसी
कारणवश मुक्ति नहीं होती वे अत्यंत कष्टों का अनुभव करते हुए इधर उधर भटकते रहते
हैं। यह अतृप्त आत्माएं, यदाकदा अपनी अशरीरी तामसिक शक्ति का आभास कुछ मनुष्यों को
मानसिक संताप व कष्टों इत्यादि के माध्यम से करवाती है। सामान्य भाषा में इनको ही
भूत कहा जाता है।
तीन पदार्थों के संयोजन
से निर्मित जीवन का जो रूप है वह, पितृ, कुल देवताओं, ग्राम व
स्थान देवताओं, सिद्धों, सिद्धों,
पीरों एवं जिन्न इत्यादि संज्ञा से जाना गया है ये शीतलता, अग्नि, ताप तथा वायु वेग से अपना आभास करवाते है।
ये उपदेश मात्र से भी सिद्ध होने वाले निम्न कोटि के देवता होते हैं जो अपनी
इच्छित सामग्री, भोग तथा अर्पित विभिन्न पदार्थों के माध्यम से संतुष्ट होकर व्यक्ति
के भौतिक मनोरथ पूर्ण कर दिया करते हैं। अधिकतर ओझा, सिद्ध
एवं तांत्रिक इन्हीं की शक्तियों का उपयोग करते हुए पाए जाते हैं।
तदुपरांत केवल वायु तथा
आकाश से निर्मित दो तत्वीय जीवन का भी अस्तित्व है। यह मनुष्यों के समक्ष अपना
स्वरूप केवल स्वप्न में अथवा मन की भावनाओं द्वारा प्रकट करते हैं। सामान्य भाषा में इनको ही देवता कहा जाता है। इनकी
कृपा प्राप्ति हेतु विभिन्न उपासना विधियों, जप, तप,
दान, हवन, पूजन, तर्पण इत्यादि सात्विक
कर्म किये जाते हैं। जिससे ये हमारी प्रार्थनाओं के प्रतिफल स्वरूप भौतिक कष्टों
का निवारण तथा कामनाओं की पूर्ति प्रदान करते हैं।
अंत में, सर्वोच्च
तत्व, आकाश, यह एक निराकार तथा सर्वव्यापी
शक्ति है, जिसे परमात्मा या ईश्वर के रूप में पहचाना जाता
है। यह सम्पूर्ण सृष्टि को अंदर-बाहर से आच्छादित किए हुए है। इसका केवल आभास ही
किया जा सकता है क्योंकि मानव इन्द्रियाँ इसके सम्पूर्ण स्वरूप को जान ही नहीं
सकतीं। प्राचीन ऋषियों ने मीमांसा द्वारा इस परम तत्त्व का स्वरूप अपने विचारों
एवं मान्यताओं के अनुसार प्रतिपादित किया।
पांचतत्वों के विभिन्न
संयोजनों से निर्मित यह जीवन प्रणाली सदैव सक्रिय रहती है व हमारे शरीर, कर्म,
ज्ञान, चेतना, मन तथा आत्मा
के अनुभवों का संचालन करती है। यह सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म, भोग,
मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र को निरंतर गतिशील रखती है।
ॐ शान्तिः शान्तिः
शान्तिः
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