अब तक हमने सृष्टि की उत्पत्ति और उसके रहस्यों की ओर कुछ झांकियाँ देखीं। आज समय आ गया है कि हम स्वयं की ओर देखें — यह जानें कि "मैं" कौन हूँ?
साधारणतः जब हम कहते हैं "मैं", तो हम अपने शरीर, अपने नाम या अपने रूप को ही 'मैं' मान लेते हैं। पर सोचिए — क्या यह शरीर वास्तव में 'मैं' है?
यदि शरीर का कोई अंग कट जाए, तो हम उसे "मेरा हाथ", "मेरा पैर" कहते हैं — हम यह नहीं कहते कि "मैं ही कट गया।" इसी प्रकार, हमारा नाम भी "मेरा नाम" है — 'मैं' नहीं।
इससे स्पष्ट होता है कि जो 'मैं' है, वह न तो यह शरीर है, न नाम, न रूप।
तो फिर 'मैं' कौन हूँ?
'मैं' वह हूँ जो सुख-दुख को अनुभव करता है, जो सोचता है, डरता है, आनंदित होता है, रोता है, हँसता है। मैं ही पूजा करता हूँ, भूख-प्यास अनुभव करता हूँ, जन्म लेता हूँ और मृत्यु को भी झेलता हूँ। किंतु इन सबका संबंध शरीर से है — आत्मा से नहीं।
तो 'मैं' क्या आत्मा हूँ? या फिर आत्मा से निकली कोई चेतना?
जी हाँ, यही चेतना — यही अंतरात्मा — वही 'मैं' है। यह चेतना आत्मा का एक अंश है — जैसे एक पात्र में भरी थोड़ी-सी गंगाजल की मात्रा, जो स्वयं में पवित्र है पर पूरी गंगा नहीं है।
यह चेतना ही शरीर के अनुभवों का भोग करती है। यह ही ‘भोक्ता’ है जो इन्द्रियों द्वारा सुख-दुख का अनुभव करती है। इसी भोक्ता की इच्छाएँ, लालसाएँ, कामनाएँ कभी पूरी नहीं होतीं — और मनुष्य जीवनभर इन्हें पूरा करने के लिए भागता रहता है।
इसी भागदौड़ में वह पाँच विकारों — काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद — का शिकार होकर अपने जीवन के असली उद्देश्य, मोक्ष या आत्मोद्धार को भूल बैठता है। और फिर वह फंस जाता है जन्म-मरण के उस चक्र में, जिसे चौरासी लाख योनियों का चक्र कहा गया है।
अब इसे एक सरल उदाहरण से समझो:
एक मक्खी, जो रस की मिठास के लालच में चाशनी पर बैठती है — आरंभ में उसे रस मिलती है, पर धीरे-धीरे उसके पंख और पैर चिपकने लगते हैं। वह उड़ नहीं पाती, बल्कि और गहराई में फंसती जाती है — और अंततः उसकी मृत्यु हो जाती है।
क्या हम सब भी कहीं उसी मक्खी की तरह अपने मोह, इच्छाओं और सांसारिक सुख की चाशनी में फंस तो नहीं रहे?
यदि हाँ — तो क्या इससे कोई मुक्ति है?
उत्तर है — हां, अवश्य है।
ईश्वर ने हमें एक दिव्य उपहार दिया है — विचार शक्ति।
हमारे ऋषियों ने वेदों, उपनिषदों और धर्मग्रंथों में जीवन के हर प्रश्न का समाधान दिया है। अब हमें केवल इतना करना है — उस ज्ञान को समझकर, अपने वर्तमान जीवन में सही दिशा में उपयोग करना।
यदि हम अपनी चेतना को पहचान लें, उस ‘मैं’ को जान लें — तो मुक्ति का मार्ग स्वयं स्पष्ट हो जाता है।
इसी आत्मबोध के उद्देश्य से यह लेखन आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
यदि एक भी आत्मा जाग जाए, तो यह प्रयास सफल हो गया।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
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