हमे ज्ञात हुआ है कि, यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड शिवतत्व-महाकाल
(पदार्थ) तथा शक्ति-महाकाली (उर्जा) की पारस्परिक प्रतिक्रिया का ही परिणाम है। प्रादुर्भाव
के उपरान्त, शिवतत्व, पुन: तीन भागों में विभक्त हुआ, परिणामस्वरूप परुष रुपी त्रिदेव-
सृजन कर्ता ब्रह्मा, पालन कर्ता विष्णु तथा विध्वंसकर्ता
शिव अस्तित्व में आये। तीनो पुरुष रूप अपने कर्तव्यपालन हेतु पर्याप्त उर्जा
प्राप्ति की कामना से, अनंत अन्तरिक्ष के तीन पृथक स्थानों पर शक्ति की तपस्या में
लीन हो गये। उनकी तपस्या से प्रसन्न तथा संतुष्ट हो, उर्जा ने इनके सामर्थ्य के आंकलन
का निर्णय लिया तथा एक तेजोमयी देवी का रूप धारण किया।
सर्वप्रथम
वे, ब्रह्माजी
के निकट गयीं, ब्रह्मा उनके स्वरूप के तेज तथा उर्जा से अत्यंत व्यथित हो गये तथा
उन्होंने तुरंत अपने नेत्र बंद करके अपना शीश उत्तर दिशा को मोड़ लिया, तब देवी के आमुख उनका एक नवीन शीश उत्पन्न हो गया। इस क्रिया की
प्रत्येक दिशा में पुनरावृत्ति द्वारा उनके कुल चार मुख हो गए। अंततः उन्होंने
आकाश को देखा व उनका पांचवां मुख ऊपर भी उत्पन्न हो गया। तब शक्ति अंतर्ध्यान हो
गयीं। तदुपरांत वे विष्णु जी के सम्मुख प्रकट हुईं। वे भी कुछ समय पश्चात देवी का तेज
तथा ऊर्जा के वहन में असमर्थ हो गए, व अपना आसान त्याग कर
अन्य स्थान को प्रस्थान कर गये।
अंततः वे
ध्यान में लीन व गहन समाधिस्थ शिव के प्रत्यक्ष आयीं, जिनको उनकी उपस्थिति का आभास
हो गया किन्तु, वे इस स्त्रीरूपा ऊर्जामयी तेजोराशी से अविचलित अपने आसन में स्थिर
रहे। महादेव ने ध्यान को त्याग कर प्रश्नवाचक दृष्टि से देवी के नेत्रों को देखा
तथा उनका प्रयोजन जान, कुछ क्षण विचार करने के उपरान्त अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।
अतः आदिशक्ति
ने अपने निर्णय की घोषणा इस प्रकार की, ब्रह्मा को सृष्टि के सृजन हेतु जिस सम्पूर्ण
ज्ञान की आवश्यकता है जिसका मैं उनको वरदान प्रदान करती हूँ । विष्णु को जगत पालन
हेतु मेरी सौम्य ऊर्जा का रूप प्राप्त
होगा किन्तु वे सशंकित हो अस्थिर हुए थे अतः परिस्थितियों की आवश्यकतानुसार मेरी
शक्ति से उनका संयोग तथा वियोग होता रहेगा तथा उनको मेरा प्रयत्नपूर्वक अर्जन करना
होगा। केवल शिव मेरी ऊर्जा के सभी आयामों के वहन का सामर्थ्य रखते हैं, अत: मैं उनका वरण करूंगी।
परंतु, शिव को भी मेरे विषय में कुछ संशय था, अतः हमारा एक बार वियोग होगा एवं फिर पूर्ण संयोग होगा।
उर्जा,
त्रिदेवीयों में विभक्त हो —सरस्वती रूप में ब्रह्माजी, लक्ष्मी रूप में विष्णुजी तथा
आदिशक्ति रूप में महादेव को अर्धांगिनी स्वरूप में प्राप्त हुईं। यही ज्ञान,
धन व शक्ति की सृजन, पालन-संचालन तथा अंत-पुनर्निर्माण
की भूमिका का प्रमाण है। जन्मोपरांत, मानव अपनी इन्द्रियों संसार का परिचय, ज्ञान
का अनुभव बुद्धि से, शारीरिक कर्मों से भौतिक पदार्थों की प्राप्ति करता है तथा जीवन
यात्रा को पूर्ण करके पुन: शिव तत्व में विलीन हो जाता है। माया जनित यह चक्र
अनवरत जारी रहता है।
हमारे
महर्षियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही ज्ञात कर लिया था कि, सम्पूर्ण ब्रह्मांड पदार्थ एवं शक्ति
(मैटर तथा एनर्जी) के संयोजन से ही निर्मित है। उन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्मांड के निर्माण, इसकी
संरचना, कार्यप्रणाली के रहस्यों का गूढ़ ज्ञान वैदिक ऋचाओं के माध्यम से हमें प्रदान किया।
ॐ शान्तिः शान्तिः
शान्तिः
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