-6-
आत्मा
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा
भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
भगवद गीता के द्वितीय अध्याय के 20वें श्लोक के अनुसार, आत्मा नित्य और शाश्वत है। अर्थात आत्मा
शरीर के जन्म से पहले भी अस्तित्व में थी और शरीर की समाप्ति के बाद भी अस्तित्व
में रहती है।
कुछ व्यक्तियों ने मृत्यु के बाद अपने मृत शरीर और आसपास की घटनाओं को देखा
है। यह प्रश्न उठता है कि बिना नेत्रों के वे कैसे देख सकते हैं, क्योंकि
दृष्टि प्रकाश के परावर्तन पर निर्भर है। स्वप्न अवस्था में, बिना प्रकाशीय परावर्तन के भी दृश्य देखे जा सकते हैं, जिससे यह समझ आता है कि देखने के लिए नेत्र आवश्यक नहीं। अपितु इससे परे
एक मानसिक शक्ति है जो दृष्टा है । यह एक मानसिक शक्ति है जो बिना ज्ञानेन्द्रियों
के देख, सुन, और अनुभव कर सकती है,
इसे सूक्ष्म शरीर कहा गया है। इसकी गति विचार की गति के समान
तीव्र होती है, जो एक क्षण में ब्रह्मांड के छोर तक पहुंच
सकती है।
हमारे शरीर में एक अद्भुत शक्ति समाहित है जिसे मन कहते हैं। यह मन आत्मा का
एक अवयव है एवं अत्यधिक शक्तिशाली है।
पुरातन ऋषियों ने अपने मन के नेत्रों से देखा कि यह केंद्र स्वास्तिक आकार का है, जिसे आज
का विज्ञान अब समझ सका है, जबकि सनातन धर्म हजारों वर्षों से
स्वास्तिक का उपयोग मंगल चिन्ह के रूप में कर रहा है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड आज भी एक
ही नाद 'ॐ' से तरंगित हो रहा है,
जो उन्हें पहले से ज्ञात था। प्रत्येक ग्रह की आवृत्ति के अनुसार
उसके मंत्र की रचना की गयी है। तारा समूहों को नक्षत्र कहा गया और आकाश को 27
नक्षत्रों में बाँट कर उनकी आवृत्ति के अनुसार मंत्र रचित हुए। इन 27
नक्षत्रों को विभाजित करके 12 राशियाँ बनीं।
भविष्य में हम इस सन्दर्भ में अधिक चर्चा करेंगे ।
आत्मा की ज्ञानेन्द्री
मन है और कर्मेन्द्री शरीर है, जिससे आत्मा अनुभव प्राप्त करती है। यह
शरीरातीत, असीमित तथा मुक्त है। उपनिषदों में ऋषियों ने भी
आत्मा का स्थान हृदय में माना एवं प्रतिपादित किया कि स्थूल हृदय हमारी छाती के
वाम भाग में स्थित है, लेकिन द्वितीय चैतन्य हृदय अशरीरी है व
मस्तिष्क में स्थित है। आत्मा तथा चेतना मस्तिष्क के इसी स्थान में निवास करती है।
वास्तव में, आत्मा
वह ऊर्जा है जो प्राण का निर्माण करती है। जैसे गतिज ऊर्जा, किसी चाभी वाले खिलोने
या घड़ी को संचालित करते हुए, स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित होती है, तथा जब यह परिवर्तन पूर्ण हो जाता है, तो यंत्र
कार्य करना बंद कर देता है। वैसे ही शरीर में प्राण समाप्त हो जाते है तो वह शव हो
जाता है, यही जन्म-मृत्यु का चक्र है जो चौरासी लाख योनियों में जारी रहता है।
जैसे विभिन्न उपायों से ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जा सकता
है, तथा इन परिवर्तनों में ऊर्जा की मात्रा सदैव स्थिर ही
रहती है, उसी प्रकार आत्मा भी कितने ही शरीर धारण करे,
वह अजर-अमर रहती है। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवद् गीता में
आत्मा के इसी स्वरूप को समझाया है।
अभी तक प्रकाशित विचार
शृंखला पर आपकी टिप्पणियों तथा जिज्ञासाओं का सधन्यवाद स्वागत है ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें