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बुधवार, 29 जनवरी 2025

अद्वैत का सिद्धांत


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 अद्वैत का सिद्धांत

प्रायः मानव जीवन में आत्म-विकास को 'आत्मोधार' कहा जाता है। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो जो प्रगति की आकांक्षा न रखता हो, क्योंकि स्वयं और परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करना उसका लक्ष्य और सामाजिक दायित्व भी है।

भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रवृत्ति को सृष्टि के संतुलन के लिए आवश्यक बताया है। उन्होंने निष्काम भाव को अधिक महत्वपूर्ण माना है। व्यक्ति अपनी क्षमताओं और गुणों में वृद्धि के प्रयास द्वारा आत्म-जागरूकता, आत्मविश्वास, संवाद कौशल, तनाव प्रबंधन और सामाजिक योगदान के माध्यम से लक्ष्यों को प्राप्त करता है।

व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से आत्मा के उद्धार अर्थात 'आत्मोधार' के प्रति भी प्रयासरत रहना चाहिए। आध्यात्मिक विकास उसे जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की ओर ले जाता है और जीवन को संतुलित, सार्थक तथा सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

भारतीय पौराणिक दर्शन के अनुसार, संसार में ईश्वर अर्थात ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव तथा ब्रह्म पृथक नहीं हैं। जीव अज्ञान के कारण ब्रह्म को नहीं जान पाता, जबकि ब्रह्म भीतर ही विराजमान है। ब्रह्मसूत्र में 'अहं ब्रह्मास्मि' द्वारा 'अद्वैत' सिद्धांत बताया गया है। अद्वैत का अर्थ है 'द्वैत का अभाव' अर्थात 'एकात्मकता'।

अद्वैत का उदाहरण: जिस प्रकार जल में तैरता हिमखंड दोनों जल के रूप हैं, उसी प्रकार आत्मा-परमात्मा एक हैं, लेकिन शरीर और मन के कारण यह अलग प्रतीत होते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए सकारात्मक प्रयास करने से 'सच्चिदानंद' रुपी परम सत्य की अनुभूति होती है।

अद्वैत सिद्धांत के मुख्य बिंदु:

  1. ब्रह्म ही सत्य है: ब्रह्म निर्गुण, निराकार, अनंत और एकमात्र सत्य है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है।

  2. आत्मा और ब्रह्म एक हैं: जीवात्मा और ब्रह्म एक ही हैं। अज्ञान के कारण वे दो प्रतीत होते हैं।

  3. माया का सिद्धांत: माया वह शक्ति है जो ब्रह्म को सीमित और विविध रूपों में प्रकट करती है। यह वास्तविक नहीं है, लेकिन अज्ञान के कारण सत्य मान ली जाती है।

  4. मोक्ष की प्राप्ति: मोक्ष का मार्ग ज्ञान है। ज्ञानी को जब एकात्मकता का बोध हो जाता है, तो वह माया के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।

  5. ब्रह्म के दो भेद हैं: निर्गुण ब्रह्म (गुणरहित, निराकार, अव्यक्त) और सगुण ब्रह्म (गुणों और रूपों से युक्त देवता)। परंतु, निर्गुण ब्रह्म ही वास्तविक सत्य है, जबकि सगुण ब्रह्म माया के कारण प्रकट होता है।

  6. मोक्ष: 'अहं ब्रह्मास्मि' का अनुभव सभी भेदों और बंधनों का नाश कर आत्मा-परमात्मा के एकत्व की स्थिति प्रदान करता है।

अद्वैत सिद्धांत के प्रमुख सूत्र:

  1. ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या: ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या (भ्रम) है।

  2. जीवो ब्रह्मैव नापरः: जीव (आत्मा) ब्रह्म से अलग नहीं है।

  3. अहं ब्रह्मास्मि: मैं ही ब्रह्म हूं।

  4. तत्त्वमसि: तुम ही वह (ब्रह्म) हो।

  5. सर्वं खल्विदं ब्रह्म: यह सब कुछ ब्रह्म ही है।

निष्कर्ष: अद्वैत सिद्धांत का मुख्य संदेश यह है कि प्रत्येक जीव पूर्वजन्म की वासनाओं के साथ जन्मता है और माया से प्रभावित जीवन जीता है। पाप-पुण्य के अनुसार सुख और दुःख की प्राप्ति होती है। संपूर्ण ब्रह्मांड एक ही सत्य (ब्रह्म) का प्रकटीकरण है। माया पृथकता का कारण है और वह शक्ति है जो ब्रह्म को सीमित और विविध रूपों में प्रकट करती है। यह जगत वास्तविक नहीं है, अज्ञानवश यह सत्य प्रतीत होता है। मनुष्य का लक्ष्य परमात्मा से एकाकार कर मोक्ष प्राप्त करना है।

जीवन में अर्जित पुण्य कर्मों से एक अवधि के लिए स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस अवधि के बाद जीव पुनः मृत्युलोक में आता है और मोक्ष प्राप्त करने तक यह चक्र चलता रहता है। विद्वान मनुष्यों को आसक्ति का त्याग कर विद्याभ्यास में तत्पर रहना चाहिए। विषय भोगों का सेवन करने वाले अंततः कल्याण नहीं पाते। आत्म तत्व का विचार करके वासनात्मक सुख का परित्याग कर शाश्वत सुख की प्राप्ति करनी चाहिए। विद्वान को ज्ञान और विवेक के माध्यम से इच्छित पदार्थ में आसक्ति और अनिच्छित पदार्थों की प्राप्ति में द्वेष का परित्याग कर आत्मोधार के लिए तत्पर हो जाना चाहिए और अंततः मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।


हरि ॐ शांति







मंगलवार, 28 जनवरी 2025

मृत्यु एवं पुनर्जन्म-2

 

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 मृत्यु एवं पुनर्जन्म-2


हमें ज्ञात है कि गरुड़ पुराण के अनुसार मृतात्मा 13 दिनों तक भूलोक में परिवारजनों के समीप रहती है। अतः सनातन धर्मी परिवारजनों द्वारा मृतात्मा हेतु सद्गति की कामना से “गरुड़ पुराण” के पाठ का आयोजन किया जाता है, जिससे मृतात्मा को मोह से मुक्ति व शान्तिः तथा श्रोताओं को जीवन में सत्कर्मों के पालन की प्रेरणा प्राप्ति होती है।

तदुपरांत, मृतात्मा यमलोक की ओर प्रस्थान करता है, यह यमलोक यात्रा चालीस दिवस की अवधि में पूर्ण होती है। इस यात्रा के तीन मार्ग हैं व यमदूत मृतक के कर्मो के अनुसार, किसी एक मार्ग का चयन करके, उसे यमलोक ले जाते हैं। यात्रा मार्ग के मध्य में वैतरणी नामक रक्त, विष्ठा व पीप से भरी एक दुर्गन्धयुक्त नदी आती है इसके भीतर विभिन्न भयंकर जहरीले जीव, कृमि इत्यादि तथा इसके तटों पर भी कष्टदायक पशु-पक्षी निवास करते हैं अतएव दुरात्मा इसे अत्यंत कष्टप्रद रूप से तैर कर तथा गौ दानी धर्मात्मा यमदूतों द्वारा चलित नाव से पार करते हैं। यम पुरी के निकट “पुष्पोदक” नामक पवित्र नदी प्रवाहित है तथा इसके तटों पर छायादार वटवृक्ष हैं, मृतात्मा यहाँ परिजनों द्वारा प्रथम मासिक श्राद्ध में अर्पित पिंड तथा तर्पण के जल प्राप्ति हेतु अल्पावधि विश्राम करती है।

भूलोक के ऊपर दक्षिण दिशा में 86,000 योजन की दूरी पर यमलोक स्थित है, जिसके स्वामी यमराज हैं। भगवान सूर्यदेव उनके पिता तथा देवी सरणयू या संज्ञा उनकी माता हैं। भगवान शनिदेव उनके अनुज भ्राता एवं  यमुना उनकी बहन हैं। यमराज का प्रिय वाहन महिष है तथा वे गदा एवं पाश धारण करते हैं। उनके शरीर की कान्ति हरी है, वे रक्ताम्बर धारण करते हैं। यमराज अपनी यमपुरी नगरी में कालित्री नामक महल में विचारभू नामक सिंहासन पर विराजमान रहते हैं। यमराज के दूतों को यमदूत कहा जाता है, जिनमें प्रमुख महाण्ड व कालपुरुष हैं। धर्मध्वज एवं वैध्यत यमराज के महल के द्वारपाल हैं तथा इनके साथ दो अत्यंत विशाल कुत्ते भी हैं।

यमलोक में ही ब्रह्मापुत्र भगवान चित्रगुप्त का निवास है जिनकी “अग्रसंधानी” नामक बही में प्रत्येक जातक के पाप-पुण्य कर्मों का लेखा-जोखा संकलित है। चित्रगुप्त जी बही के निरीक्षण पश्चात मुतात्माओं को चार श्रेणियों में विभक्त कर, अपने महल से बीस योजन दूर स्थित यमराज के महल में, अंतिम निर्णय हेतु प्रेषित कर देते हैं। कालित्री महल में प्रवेश हेतु चार दिशाओं में चार द्वार हैं जिनमें श्रेणीनुसार; दक्षिण दिशा से पापत्माओं, पश्चिम दिशा से पुण्यात्माओं, उत्तर दिशा से धर्मात्माओं तथा पूर्व दिशा से देवात्माओं को प्रवेश की अनुमति प्राप्त होती है। दक्षिणी द्वार को नर्क तथा पूर्वी द्वार को स्वर्ग का द्वार भी कहा गया है।

भगवान यमराज, पापियों को यमराज स्वरूप में तथा पुण्यात्माओं को धर्मराज स्वरूप में दर्शन देते हैं तथा भगवान चित्रगुप्त के विश्लेषण के आधार पर, मृतात्मा को स्वर्गलोक अथवा नर्क के भोगने की अवधि तथा विधि का निर्णय लेते हैं। यह निश्चित अवधि पूर्ण होने के पश्चात जिन आत्माओं का चक्र भोग शेष रहता है उनका भूलोक पर पुनर्जन्म होता है, यह पुनर्जन्म का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक आत्मा अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो जाती तथा मोक्ष प्राप्त नहीं कर लेती।

इस प्रकार गरुड़ पुराण, लौकिक जीवन तथा मृत्योपरांत पारलौकिक लोकों के रहस्यों विस्तृत वर्णन करता है। यह हमें अपने उचित-अनुचित कर्मों के महत्व को समझने तथा सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। प्रत्येक सनातन धर्मी का यह कर्तव्य है कि वह अपनी जीवन अवधि में कम से कम एक बार इसका अध्ययन अथवा श्रवण अवश्य करें।        

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः


मृत्यु एवं पुनर्जन्म

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मृत्यु एवं पुनर्जन्म

अठारह पुराणों में से गरुड़ पुराण मानव की मृत्यु, कर्मों का फल तथा पुनर्जन्म विषयक ज्ञान प्रदान करता है। मनुष्य की दुष्कर्मों से रक्षा, चरित्र का निर्माण, नैतिकता का उत्थान, सात्विक जीवन तथा जगत कल्याण आधारित उत्तम समाज का निर्माण करना इसका प्रमुख उद्देश्य है।

 

मृत्यु प्रक्रिया: हमें ज्ञात है कि यह शरीर असंख्य कोशिकाओं से निर्मित है। जीवन कोशिकीय स्तर पर आरम्भ हुआ अतः मृत्यु प्रक्रिया भी इसी स्तर पर आरंभ होती है। कोशिकाओं का अग्नि तत्व वहां उपलब्ध वायु एवं जल तत्व से प्रतिक्रिया कर उनमें संचित ऊर्जा को मुक्त करता है। परिणामतः मरणासन्न व्यक्ति के सम्पूर्ण शरीर में अवर्णनीय पीड़ा व जवलनीय ताप की अनुभूति होती है। तदुपरांत शरीर के रक्त संचार व श्वसन, मांसपेशी, उत्सर्जन, प्रतिरक्षा प्रणाली एवं तंत्रिका तंत्र, लसीका व अंतःस्रावी तंत्र, तथा इनसे सम्बन्धित अंग निष्क्रिय हो जाते हैं। दृष्टि, स्वर, घ्राण, श्रवण व स्पर्श पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ शांत हो जाती हैं। कार्यक्षमता समाप्त होने से शरीर शिथिल हो जाता है, वाणी कंठ में अवरुद्ध हो जाती है शरीर का तापमान घटने से पैर तथा हाथ शीतल हो जाते हैं अंततः शरीर निचेष्ट हो जाता है

 

जब भौतिक शरीर निष्क्रिय हो जाता है, तब सूक्ष्म शरीर सक्रिय हो उठता है, मन तथा चेतना की तीव्र गतिविधियाँ आरम्भ हो जाती हैं। व्यक्ति के शरीर के सातों चक्र, अपनी संचित ऊर्जा को मुक्त कर देते है।

व्यक्ति को स्वप्नावस्था का मानसिक अनुभव होता है। उसे अपने सम्पूर्ण जीवन का वृतांत चलचित्र की भांति दृष्टिगोचर होता है। तदुपरांत, व्यक्ति की संचित स्मृति, चेतना व प्राण उसके सूक्ष्म शरीर में स्थानांतरित हो जाते हैं। यह प्राणरुपी सूक्ष्म शरीर, अत्यंत गतिमान हो कर, स्थूल शरीर से पृथक होने का मार्ग ढूँढने लगती है। इस उर्जा के संचरण फलस्वरूप भौतिक शरीर क्षणिक अवधि हेतु कम्पायमान होकर एक बार अपनी अंतिम गतिविधि प्रदर्शित करता है। यही मृत्यु है ॐ ॐ ॐ

 

ग्रन्थों में सामान्य प्राणोत्सर्ग हेतु, एक मुख, दो नेत्र, दो नासिकाएं दो कर्ण तथा दोनों उत्सर्जन अंगों के कुल नौं छिद्र द्वार रूप में वर्णित हैं तथा प्राणरुपी सूक्ष्म शरीर मृतक के शुभ-अशुभ कर्मो तथा जीवनशैली के आधार पर इन्हीं में से किसी एक का चयन कर मृत देह को त्याग देता है।

परन्तु, सिद्ध, योगी, तपस्वी, महात्मा व मुक्त मानव इत्यादि का प्राणोत्सर्ग कपाल के शिखर पर स्थित दशम द्वार अर्थात ब्रह्मरन्ध्र से सम्पन्न होता है, क्योंकि उनका आध्यात्मिक चेतना एवं ब्रह्मांडीय ऊर्जा केंद्र सहस्रार चक्र:” जागृत तथा ईश्वर से एकीकृत होता है। इनकी मृत देह का अग्नि संस्कार नहीं होता।

 

शरीर से मुक्त हुए, सूक्ष्म शरीर को "प्रेत" कहा जाता है। यह चार तत्वों के संयोजन निर्मित एक अदृश्य ऊर्जावान पिंड होता है। प्रेत में मृतक की आत्मा, जीवन सम्पूर्ण स्मृतियाँ, कामनाएं, आकांक्षाएँ तथा चेतना संचित होती हैं एवं यह उनकी प्रेरणा से ही आचरण करता है। प्रेतात्मा अपनी गति हेतु ललायित रहता है।

प्रेतात्मा की तीन प्रकार की गति वर्णित की गयी है; सामान्य गति, सद्गति तथा दुर्गति। मुख्यतः सत्कर्मों से सद्गति, दुष्कर्मों से दुर्गति की प्राप्ति होती है। अतः मृतक के पुत्र सम्बन्धी, मृतात्मा की सद्गति एवं मुक्ति की कामना से विभिन्न क्रियाकर्म, गौदान, अन्नदान, पिंडदान तथा श्राद्ध इत्यादि संस्कार करते है। मृत्यु के तेरहवें दिवस स्पिंडी अनुष्ठान आयोजन से  मृतात्मा का भूलोक से सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथा वह अपने निमित्त समर्पित पिंड प्राप्ति के उपरान्त, यमलोक हेतु प्रस्थान करता है।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः




सनातन धर्म का महत्व

 

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सनातन धर्म का महत्व

 

सनातन दर्शन के अनुसार, आत्मा 84 लाख योनियों के जन्म-मरण चक्र की पूर्णता के उपरान्त मानव रूप प्राप्त करती है। वेदों ने स्पष्ट रूप से मनुष्य को सृष्टि की सर्वोच्च रचना माना है उसे पूर्णता के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है। आत्मा के जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना ही धर्म का एकमात्र उद्देश्य बताया गया है, जिसे मोक्ष के रूप में जाना जाता है। इस प्रक्रिया में, आत्मा की पूर्णता एवं मोक्ष प्राप्त करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।

 

भूलोक पर प्रत्येक जीव का जन्म लगभग एक समान प्रक्रिया से होता है। 84 लाख योनियों में सर्वप्रथम जल तत्व के पृथ्वी तत्व से संयोजन से एक डिम्ब का निर्माण होता है। जब इसमें वायु, अग्नि, और आकाश तत्व प्रवेश करते हैं, तो यह भ्रूण बन जाता है। वनस्पतियों में यह प्रक्रिया बीज के अंकुरण और जीवों में यह अंडे या माता के गर्भ में होती है।

 

पूर्वजन्म के संचित पाप-पुण्य अर्थात जीव का प्रारब्ध यह निर्धारित करता है कि वह किस योनि में कितनी अवधि तथा किस प्रकार के जीवन स्तर को प्राप्त करेगा। सरल शब्दों में, आत्मा किस रूप में जन्म लेगी, उस रूप में कितने समय तक रहेगी, एवं किस मात्रा में सुख-दुःख भोगेगी, यह सब पूर्व निर्धारित होता है। परन्तु, केवल मनुष्य योनि में चेतना के माध्यम से, प्रारब्ध से मुक्ति व आत्मोधार का मार्ग प्राप्त होता

 

युग परिवर्तन से अप्रभावित रहने वाले सत्यज्ञान तथा उद्देश्यपूर्ण जीवन प्रणाली को 'सनातन' तथा जीवन के कर्तव्य के पालन को 'धर्म' कहते हैं। वैदिक व्याख्या अनुसार, जिस कर्तव्य के पालन से आत्मिक उन्नति प्राप्त हो तथा अंत में ईश्वर से एकाकार हो, वही अनादि, अनंत, अनश्वर सनातन धर्म है।

 

प्रत्येक मनुष्य जन्मकाल से सनातनी होता है तदुपरांत उसे किसी भी सम्प्रदाय पन्थ इत्यादि में उसको सम्मिलित कर दिया जाता है तथा आधुनिक समय में इन सम्प्रदाय इत्यादि को धर्म पुकारा जाने लगा है। यदि हम शिशु के जन्मोपरांत होने वाले वैदिक संस्कारों का अथवा  म्लेच्छों के संस्कारों का विवेचन करें तो तुरंत ही सनातन धर्म का महत्व ज्ञात हो जाएगा।

 

हमारे धर्मग्रन्थों के अनुसार, यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड चौदह भुवनों-भूलोक,भुव:लोक, स्वर्गलोक, महलोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक तथा अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातम, पाताल में विभाजित है। इनमें से सात लोकों को ऊर्ध्वलोक सात को अधोलोक कहा गया है। मनुष्य, देव, दानव, प्रेत, नाग, किन्नर, गन्धर्व इत्यादि सभी प्राणी इनमे ही निवास करते हैं।

 

सम्पूर्ण भूलोक पर भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां छह ऋतुएं सदैव विद्यमान रहती हैं। हिमालय पर्वत श्रृंखला का सात्विक वातावरण साधकों को तपस्या हेतु प्रेरित करता है, जबकि उपजाऊ भूमि विभिन्न प्रकार के अन्न पैदा करती है। गंगा जैसी पवित्र नदियां शारीरिक और मानसिक शुद्धिकरण में सहायक होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति की सभी क्रियाएं भारत में धर्म की रक्षा के लिए तत्पर हैं परिणामस्वरूप, देवता भी यहां जन्म लेने की लालसा रखते हैं। भारतवर्ष वैदिक ज्ञान आधारित आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है जिससे सम्पूर्ण विश्व आलोकित है। पुराणों में भारत को पृथ्वी के मध्य में स्थित बताया तथा उज्जैन को काल की गणना का केंद्र माना गया है। अतः भारत को पृथ्वी का ह्रदय कहा गया है।

 

प्रारब्ध के निर्णय के अनुसार जन्मस्थान की प्राप्ति होती है। जिन मनुष्यों का जन्म जम्बूद्वीप, आधुनिक भारत में तथा सनातन धर्म में हुआ है, वे अत्यधिक सौभाग्यशाली हैं। इसका कारण यह है कि वैदिक ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, यज्ञयोग, आश्रमधर्म, वर्णधर्म आदि महान जीवन प्रणालियों का ज्ञान बाल्यपन से उन्हें सहज रूप से प्राप्त होता है, जिससे आत्मा की पूर्णता का बोध एवं मोक्षप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।

 

इस अंश का सारांश इस प्रकार है: भारतवर्ष में सनातन धर्म में जन्म प्राप्त होना प्रारब्ध के पुण्यों का प्रतिफल है। परन्तु, वर्तमान में जो मनुष्य म्लेच्छ संप्रदायों उनकी पथभ्रष्ट भ्रामक पूजा विधियों इत्यादि से आकर्षित हो रहे हैं, उनको 84 लाख योनियों के जन्म-मरण चक्र को बार-बार भोगना पड़ेगा।

 

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः